कविता
हर युग मेंं आते हैं भगवान
विजय कुमार तिवारी
द्रष्टा ऋषियों ने संवारा,सजाया है यह भू-खण्ड,
संजोये हैं वेद की ऋचाओं में जीवन-सूत्र,
उपनिषदों ने खोलें हैं परब्रह्म तक पहुँचने के द्वार,
कण-कण में चेतन है वह विराट् सत्ता।
सनातन खो नहीं सकता अपना ध्येय,
तिरोहित नहीं होगें हमारे पुरुषोत्तम के आदर्श,
महाभारत से बड़ी नहीं हो सकती कोई लड़ाई,
शदियों तक गूँजता रहेगा वेदान्त का उद्घोष।
पहले भी धरती पर विचरण करते थे निशाचर,
पहले भी मचाते थे उधम आततायी,
पहले भी होता था नर-संहार राक्षसों द्वारा
पहले भी होती थी लहू-लुहान हमारी धरती।
हर युग में जागती है चेतना,
हर युग में खड़ी होती है मानवता,
हर युग में होता है पुनर्निर्माण,
हर युग में आते है भगवान।
निकलने दो उन्हें अपनी बिलों से,
पहचानो उनके तौर-तरीके,उनके षडयन्त्र,
पूरी दुनिया में चिन्हित हो रहे हैं ठिकाने,उनके तन्त्र,
सभ्यता-संस्कृति से बड़ी नहीं हुई कभी उनकी दुनिया।
खेल तो अब शुरु हुआ है उस नियन्ता का,
शुरु हुआ है महाकाल का तांडव-नृत्य,
निकल पड़ी है रणचण्डिका हजार-हजार भुजाओं में खप्पर,तलवार लिये,
शुरु हो गया है उनके विनाश और सफाई का खेल।