कहानी
तुम्हारे प्रेम के नाम-2
विजय कुमार तिवारी
दुनिया तो वही है जो सबकी होती है परन्तु मेरे लिए जैसे बिल्कुल अजनबी हो चुकी है।जो जानी-पहचानी दुनिया थी उसे मैं बहुत पीछे छोड़ आया हूँ और यह नयी जगह,नयी दुनिया जैसे मुझे आत्मसात करने को तैयार ही नहीं है।इस दृष्टि से समूची नारी जाति के प्रति मेरा मन पूरी श्रद्धा से झुक जाता है।जहाँ जन्म लेती है,जिन हवाओं में सांसे लेकर जवानी की दहलीज तक पहुँचती है,माता-पिता,भाई-बहन,दोस्त-मित्र सबको छोड़कर,नयी दुनिया बसा लेती है।यह हुनर हर लड़की बिना बताये जानती है और समय आने पर बखूबी निभा लेती है।तुम्हारी इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि लड़की को सही संरक्षण मिले तो वह सब का सहारा बनती है।तुम्हारी मृदुल मुस्कान आज भी याद है,जब तुमने कहा था,"पुरुष में यह गुण नहीं होता या बहुत कम होता है।वह तो अपने पुरुषत्व के दम्भ में रहता है।नारी उसका भी सहारा बनती है और उसके दम्भ का भी।"
अक्सर नारी अपने पुत्र को हर तरह से मजबूत,जुझारु और संघर्षशील बनाने में अपनी पूरी चेतना,प्राणशक्ति और अपना युवापन सब झोंक देती है।सन्तान के लिए अपनी युवा भावनाओं,सुख-शान्ति सब समर्पित कर देती है।अपनी चिन्ता शायद कोई नारी नहीं करती और इसका दावा भी नहीं करती।
तुम्हें मेरे बीच के भटकन भरे दिनों के बारे में पता नहीं है।जीवन की भयानक अनुभूतियों के दौर से गुजरा हूँ।कोई बड़ी बीमारी तो नहीं थी,फिर भी लोगों ने कहा,"कुछ समय किसी ग्रामीण अंचल में जाकर रहिये।पेड़ों,बाग-बगीचों,लहलहाते खेतों और ताल-पोखरों के बीच बसा गाँव अद्भूत नैसर्गिक सुख-शान्ति प्रदान करते हैं।बड़े-बड़े चरागाहों में घास चरती गाय-भैंसें,बकरियाँ,बैल,घोड़े और उनके साथ जीवन का सुख भोगता आदमी,मजबूत,सहनशील,चेतन और प्रकृति के साथ रचा-बसा होता है।ईश्वरीय भावों से भरा गाँव का आदमी प्रेम,करुणा,दया,सहयोग जैसे उदात्त गुणों से भरा होता है।
मैंने अपना ही गाँव चुना जहाँ मेरा जन्म हुआ है और मेरा बचपन बीता है।बाद में भी अक्सर गर्मियों में मैं वहाँ आया करता था।सोचा कि लम्बा प्रवास करुँगा और यहाँ की सारी ताजी हवा अपने फेफड़ों में भर लिया करुँगा।घर भी पहले जैसा नहीं है और जिस कमरे में रहने को मिला है वह बहुत हवादार और खुला-खुला है।पहले ही मेरे आने की सूचना पहुँच चुकी थी और लोगों ने कहा,"हम सभी बहुत बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे हैं।"गाँव के लोगों ने हमदर्दी दिखायी।मैं अभिभूत हुआ।
घर के सामने कभी विशाल बरगद का पेड़ हुआ करता था।उसकी छाया तले गाँव भर के युवा और वृद्ध पूरी गर्मी काट देते थे।अब वहाँ चारो तरफ घास-पात,जंगल जैसा उग आया है।बरगद से कुछ दूर जहाँ खेत शुरु होते हैं वहाँ नीम का मोटा,बड़ा पेड़ और कनैल था।अब न बरगद है,न नीम का पेड़ और न कनैल।इतना ही नहीं,गाँव के आसपास दूर-दूर तक आम,महुआ,नीम,जामुन,पीपल के बाग-बगीचे और चारो तरफ हरियाली युक्त चरागाह थे।आज वैसा कुछ भी नहीं है।ताल-पोखर भी सुख गये हैं।
तुम्हें मन की पीड़ा लिख रहा हूँ।मेरी सारी कल्पनायें धूमिल हुई हैं और सारा उत्साह ठंडा हो चुका है।लगभग चालिस वर्षों के बाद लौटा हूँ और मेरा गाँव विरान दिख रहा है।पहले मिट्टी के खपरैल मकान हुआ करते थे और गरीबों की घास-फुस की झोपड़ियाँ।अब लोगों ने पक्के मकान बना लिये हैं।कुओं की जगह सबके घरों में हैंडपंप हैं,गलियों में खड़ंजा और इस टोले से उस टोले तक पक्की सड़क।बिजली के खम्भों पर रात भर बल्ब जलते हैं और घरों में भी।मैंने पुस्तकें भेजी थीं जिसे आलमारी में सहेजकर रखा गया है।मेरी दूसरी पीड़ा है कि साहित्य और धर्म की पुस्तकों से भरी आलमारी कोई खोलने वाला नहीं है।तुम कल्पना करॊ कि बिना पढ़े ज्ञान कहाँ से मिलेगा?मैंने अब तक के जीवन में बहुत पुस्तकें पढ़ी हैं और उनका संग्रह किया है।दो-चार दिनों में ही मेरी समझ में आ गया कि यहाँ के लोग अपने तरह से ज्ञानी हैं और जितना सीधा-सरल समझ रहा हूँ,वैसी स्थिति नहीं है।विद्वानो ने कहा है कि या तो पूर्ण ज्ञानी सुखी रहता है या जो बिल्कुल अज्ञानी है।ये लोग अपने तरह के ज्ञानी हैं और खूब ठसक की जिन्दगी जीते हैं।
यह मत समझना कि मैंने बहुत कुछ भुला दिया है और किसी अलिप्त सन्यासी की तरह रह रहा हूँ।मैंने सुखी होने का अपना तरीका खोज निकाला है।दो-तीन दिनों तक बड़ी असमंजस की स्थिति रही।अचानक नीचे से कुछ महिलाओं की आवाजें सुनायी पड़ी।निश्चित ही उनका जमावड़ा हुआ है और उनकी हंसी में अद्भूत निश्चिन्तता है।संयोग से थोड़ी दूरी पर पड़ोसी की दालान में पुरुषों की महफिल सजी है।मैं भी नीचे उतर आया और दूसरे टोले की ओर बढ़ चला।बचपन के दिनों के कुछ ही लोग जीवित हैं,अधिकांश भगवान को प्यारे हो गये हैं।जो जीवित हैं उनकी हड्डियाँ निकल आयी हैं और सबके चेहरों पर दुश्चिन्तायें पसरी हुई हैं।इनकी सोच ने मुझे बुरी तरह हिला डाला है।दुनिया के सभी दुख इन गाँव वालों को ही हैं।सारी रोग-व्याधियाँ इन्हें ही होती हैं।बाहर रहने वाले ऐशो-आराम की जिन्दगी जीते है,उन्हें कोई दुख नहीं होता,कोई रोग-व्याधि नहीं होती।इनकी सोच यह भी है कि इन्होंने ही त्याग-तपस्या करके उन्हें इस योग्य बनाया कि बाहर जाकर नौकरी पा सकें।बाहर जाकर नौकरी-चाकरी करने वाले स्वजनों के प्रति विचित्र विरोध के भाव हैं।इनका कहना है कि हम आयेंगे तो हमें क्या दोगे और तुम गाँव आओगे तो क्या-क्या लाओगे?
जब यह सूत्र मेरी पकड़ में आया तो खूब हंसा और मैंने स्वयं को मुक्त कर लिया।इनकी बातें सुनता हूँ,हाँ में हाँ मिलाता हूँ,इनके स्तर पर उतर आता हूँ,इनकी हंसी-मजाक में शामिल होता हूँ,इनकी फुहड़ता भरी वाचालता का रस लेता हूँ और इनकी चुहलबाजियों की गन्दगी देखता हूँ।शायद इनका मेरे प्रति विश्वास बना है और बिना संकोच किये रहस्योद्घाटन करते रहते हैं।लड़कियाँ,महिलायें ज्यादे चालाक और वाचाल हैं तथा एक-दूसरे की गोपनीयता उजागर करती रहती हैं।पूरी तरह समझ गया हूँ कि यह दुनिया परमात्मा की है और वही अपनी दुनिया चला रहा है।अपना खून जलाने की आवश्यकता नहीं है।