कविता
प्यार के बहुतेरे रंग
विजय कुमार तिवारी
याद करो मैंने पूछा था-
तुम्हारी कुड़माई हो गयी?
यह एक स्वाभाविक प्रश्न था,
तुमने बुरा मान लिया,
मिटा डाली जुड़ने की सारी सम्भावनायें
और तोड़ डाले सारे सम्बन्ध।
प्यार की पनपती भावनायें वासना की ओर ही नहीं जाती,
वे जाती हैं-भाईयों की सुरक्षा में,पिता के दुलार में,
वे जाती हैं-माँ की गोद में,बहनों की बाहों में,
और दोस्तों की खुल्लम-खुल्ला बातों में।
तुम्हें शायद इन सबमें देखने की आदत नहीं है,
तुमने तो समझा है केवल वही खेल,
तुमने देखी है शायद वही दुनिया।
सालों बाद मिली किसी की उलाहनाओं में
कूद पड़ी बिना समझे-बुझे
तुमने कहा-ये महाशय ऐसे ही हैं।
तुम क्या जानो-कैसा हूँ मैं?
कैसी हैं मेरी भावनायें और कैसी है मेरी दुनिया?
तुमने अपना परिचय दे डाला है,
दिखा दी अपनी सोच और अपनी दुनिया।
आओ मेरे दोस्त,एक मौका भगवान ने फिर दिया है,
तुम भी समझ लो मेरी तरह-
प्यार के बहुतेरे रंग होते हैं और जुड़ने के बहुत से रास्ते।