कहानी
उसे कोई नही समझता
विजय कुमार तिवारी
वह किसी की बहू है,किसी की पत्नी और किसी की माँ। स्वाभाविक है,किसी की बेटी और किसी की बहन भी होगी। उसे अपने किसी भी रिश्ते पर आत्म-विश्वास या सौ प्रतिशत भरोसा नहीं है। उसकी एक ही रट है कि उसे कोई नहीं समझता,ना उसे और ना उसके प्रेम को। वह यह भी कहती है कि आजतक उसे यह भी नहीं पता कि वह किसी को प्रेम करती भी है या नहीं। यदि करती है तो किसको और कितना ?अपनी ही बात को फिर गलत भी कहती है क्योंकि उसे पता है कि प्रेम के बिना कोई जीवित नही रहता।इसे जीने के लिए कामचलाऊ प्रेम कहकर खूब हँसती है। उसे पक्का यकीन है कि यह दुनिया इसी कामचलाऊ प्रेम के सहारे चल रही है। जिस प्रेम की तलब उसे है वह तो शायद होता ही नहीं। उसके दिल में भरा हुआ प्रेम लबालब है लेकिन लुटाये किसपर?ये तो दोनो तरफ वाला मामला होता है। एक ओर हो तो स्वतः मृतप्राय होकर समाप्त हो जाता है। दोनो ओर से हो लेकिन उसी सिद्दत के साथ न हो तो भी दुखदायी ही होता है।वह हँसती है कि यहाँ तो पता ही नहीं कि लोगो के दिलो में उसके लिए है भी या नहीं।
उससे मेरी मुलाकात लगभग पन्द्रह वर्ष पहले किसी के यहाँ शादी में हुई थी।उसके श्वसूर और सास भी साथ में थे। थोड़ा आश्चर्य हुआ कि उसका दुल्हा साथ में नहीं था। हमने साथ ही खाना खाया और बातें भी हुई-पता,पसन्द/नापसन्द और मिलते-जुलते रहने की चाह। वह मुखर होकर बोलती थी और सभी उसका अनुमोदन करते थे। मेरी और उसकी उम्र मे 15-17 साल का फासला रहा होगा परन्तु जैसे जुड़ाव की पृष्ठभूमि तो बन ही गयी। उसे भी न जाने क्या हुआ,अगले रविवार को मिलने की उत्सुकता जाहिर की। संकोच हुआ और चाहे/अनचाहे मैंने भी हाँ कर दिया। एक मुस्कान उभरी उसके चेहरे पर और खुशी-खुशी हम एक-दूसरे से अलग हुए। लौटते हुए मैंने गौर किया कि उसकी सास बहुत कम बोलती है,परन्तु चेहरे पर प्रसन्नता के भाव हैं और उसके श्वसूर भी गम्भीर मुद्रा में ही रहे। समझते देर नहीं लगी कि सुन्दर,हँसमुख और मस्ती में बातें करनेवाली बहू के लिए सबकुछ सरल नहीं रहता होगा,जबकि परमात्मा ने अपनी ओर से उसमें सौन्दर्य के सारे प्रतिमान डाल रखे थे और आप जिस दृष्टि से,जिस कोण से और जिस भावना से देखना चाहें, तारीफ किये बिना और आह भरे बिना नहीं रहेंगें।यह भी लगा कि उसे अपने सौन्दर्य का पूर्णतः ज्ञान है और थोड़ा अभिमान भी। यह तो उसका हक बनता है,मैने बिना किसी विरोध के मान लिया।
तय किये दिन को जब वह अकेले आयी तो मैने पूछ ही डाला,"आपके महाशय नहीं आये?" उसका चेहरा जैसे उतर गया। उसने स्वयं को मानो सम्भाला हो,शीघ्र ही सामान्य होती हुई बोली,"जरूरी तो नहीं कि हर जगह गले में लटकाये चलूँ।" और हँस पडी। इस हास्य के पीछे के दर्द को समझना मुश्किल नहीं था फिर भी मैने साथ देते हुए हँस दिया। शायद उसे अच्छा लगा। उसने कृतज्ञ भाव से मुझे देखा और मुस्करा उठी। गुलाबजामुन देखकर खुश हो गयी। उसकी आँखों में एक चमक थी और उसने पूछा,"आपको कैसे मालूम कि मुझे गुलाबजामुन बहुत पसन्द है?"
पहले उसकी हँसी,फिर मुस्कान और अब उसकी आँखों की चमक,किसी को और क्या चाहिए?मैने हँसते हुए पूछा,'आपकी शादी कब हुई?
"पाँच साल हो जायेंगें इस जुलाई में,"उसने उत्तर दिया।
पत्नी चाय का कप लेकर आ गयी और उसकी बगल में बैठ गयी।उसने उसके मायके के बारे में पूछ लिया।
"माँ,पिताजी और भाई हैं"उसने कहा।
"बहुत जल्दी शादी हो गयी आपकी,"मैने कहा। पच्चीस से ज्यादा की तो नहीं लगती। इसका मतलब शादी 19-20 साल होते-होते हो गयी होगी।
"यही तो बात है,किसी ने गम्भीरता से नहीं सोचा उस समय,"उसने रौ में आते हुए कहा,"बस यही देखा गया कि एक ही लड़का है और पिता इंजिनियर हैं।" उसका मन उदास हो गया। उसने जरा चहकते हुए कहा,"ये लोग तो मुझे देखते ही लट्टू हो गये।"
"आप हो ही इतनी सुन्दर" पत्नी ने हँस कर कहा। वह खुश हो गयी।
"बहुत रोयी ससुराल आकर," उसने कहना शुरु किया।"मन में जो बात थी,वैसा कुछ भी नहीं था। सास का घर में दबदबा था और पतिदेव ? पूछिए मत। रोना इस बात पर और आया कि पिताजी ने जाँच-पड़ताल क्यों नहीं की? माँ-बाप भी शादी देकर निश्चिन्त हो गये और यहाँ बहू लाकर मानो जिम्मेदारी पूरी हो गयी।"
मैने कुरेदना उचित नहीं समझा,बस सुनता रहा।
"लेकिन मैने हार नहीं मानी,"उसने उत्साहित होकर कहा।"मैं समझ गयी कि पतिदेव से मुझे खुशी नहीं मिलेगी,मेरी सास मुझे खुश नहीं रखेगी और ये लोग मिलकर मुझे व्यथित और दुखी करते रहेगें। दुखी ना भी करें तो भी मेरी खुशी इनसे मिलने से रही।"उसने एक गहरी सांस ली।"एक रात मैं बहुत रोयी,रोते-रोते थक गयी। अचानक मेरे मन में आया कि मैं इतना क्यों रोती हूँ?पहले तो मैं बहुत खुश रहती थी। खुशी तो मेरी व्यक्तिगत चीज है और मेरे भीतर होनी चाहिए। मैं दूसरों पर क्यों निर्भर हूँ?मैंने तय कर लिया कि मुझे दुखी नहीं होना है। हर हाल में खुश रहना है।जिस दिन मैंने ऐसा सोचा,एक विश्वास जागा और मैने घोषित कर दिया कि अब मैं अपने तरह से जीना चाहूँगी। आश्चर्य कि मेरे श्वसुर जी ने मेरा साथ दिया और कहा,"उसे करने दो,जो करना चाहती है।"मुझे बहुत अच्छा लगा। मैने पूरे घर को अपने तरीके से सजाया। कीचेन को ठीक किया और सारी जिम्मेदारी ले ली। मैं घर से सुबह-शाम निकलने लगी और आसपास के घरों में आने-जाने लगी। कुछ लोगो को लगा कि मैं उनकी बहुओं को बिगाड़ दूगी,और कुछ लोग बहुत आदर,स्नेह,प्रेम से मिलने लगे। लोग हमारे घर भी आने लगे और इस तरह घर में रौनक बढ़ने लगी। आमदनी बढ़ाने के लिए मैने घर में बच्चो को पढ़ाना शुरु किया,कपड़े सिलने लगी और खुश रहने लगी। आत्म-विश्वास जाग उठा और घर में सभी खुश हो गये। अब पतिदेव भी प्यार करते हैं और सास भी खुश रहती है.। मैं जान गयी हूँ कि मेरे भीतर का प्रेम,भीतर की खुशी और उत्साह ही वापस मिलता है। किसी को दुखी किये बिना अपने में खुश रहना सबको नहीं आता और अपनी मेहनत,लगन और समर्पण से सबको बाँधा जा सक्ता है।"
मुझे हँसी आयी,"सच है कि उसे कोई नहीं समझता।"