कहानी
नदी के दावेदार
विजय कुमार तिवारी
सुशीला बिलख उठी थी,मन में उठी शंका ने भयभीत कर दिया था तथा रो पड़ी थी वह।पहली बार उसे ज्ञात हुआ था कि दुनिया में शक्ति का बंटवारा किस तरह हुआ है।नहीं तो क्या कभी भी,किसी भी समय उसे झुकना पड़ा था?क्या झुका सका है किसी ने उसके परिवार को?अब तो झुकने और टूटने का जैसे सिलसिला ही शुरु हो गया है।डाक्टर मयंक भी घर में नहीं थे।हास्पिटल से आये नहीं थे।इस तरह अकेले में उसे अपनी पीड़ा कई गुनी अधिक लग रही थी।लग रहा था--जैसे विपत्तियों के हजारो-हजार पहाड़ एक साथ टूट पड़े हैं और उसके अस्तित्व को ही समाप्त कर देना चाहते हैं।
दोनो बच्चे सहमी-सहमी दृष्टियों से मम्मी को रोते हुए देख रहे थे।उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि मम्मी को हो क्या गया है।मम्मी तो कभी रोती नहीं,हमेशा हँसती,खिलखिलाती रहती है,हँसाती रहती है।बच्चों के मन में छोटे-छोटे नाना प्रकार के प्रश्न तैर रहे थे,पर डर के मारे चुप थे।
"पापा अभी तक आये क्यों नहीं?"सोनू मन ही मन कसमसा रहा था।दीप उसकी मनोभावनाओं को नहीं समझ पा रही थी।अतः उदास-उदास देख रही थी।आज दोनो ने उधम-चौकड़ी मचानी बंद कर दी थी तथा मम्मी के आसपास ही मंडरा रहे थे।
"हमें चलना होगा,"सिसकियों के बीच सुशीला डाक्टर मयंक को फोन पर समझाने का प्रयास करने लगी।
"कहाँ?"
"मेरे मायके।तुमने कुछ सुना नहीं क्या?"
"क्या सुनाना है--तुम्हीं सुना दो,"मयंक ने हँस कर कहा।
"हे भगवान,तुम तो हर बात को मजाक में उड़ा देते हो।कुछ सुनते नहीं,कुछ समझते नहीं,"सुशीला की आवाज में घबड़ाहट और बेचैनी थी।
"आखिर हुआ क्या है सुशीला...घर में सब ठीक तो है न?तुम रो क्यों रही हो?
"अभी आ जाओ मयंक,अभी इसी वक्त।मुझे सबसे अधिक तुम्हारी ही जरुरत है।आह कैसे समझाऊँ..कितनी ब्यथित हूँ मैं।"
"मैं ठीक हूँ सुशीला,चिंता की कोई बात नहीं है। अभी आया...."उसने फोन रखा।
सड़क पर भयंकर शोरगुल था तथा भीड़ का रेला एक ओर से दूसरी ओर आ-जा रहा था।सभी जैसे जल्दी में थे।मयंक के मन में भी नाना किस्म की शंकायें उठ रही थीं।ऐसा तो कभी नहीं हुआ।सुशीला ने कभी भी इस तरह फोन नहीं किया।उसका रोना अतिशय रुप से शंकित कर रहा था।
दिसम्बर का प्रथम सप्ताह शुरु हो गया है,पर अभी भी दिन गर्म ही रहते हैं।अब तक तो भयंकर ठंड पड़नी चाहिए।यद्यपि हवा में शीतलता है और राते ठंडी हो जाती हैं,पर अभी भी उसमें हाड़ कंपाने वाली तासीर नहीं है।उन्होंने लपक कर दरवाजा खोला और भीतर चले आये।यद्यपि सुशीला का रुदन बंद हो चुका था पर चेहरे पर विषाद और आतंक की जो दहशतपूर्ण स्थिति थी,देखकर ही समझ गये कि मामला अपेक्षाकृत गम्भीर है।दीप दौड़कर आयी और उनसे लिपट गयी।सोनू भी आकर चुपचाप उनके बगल मे खड़ा हो गया।
डाक्टर मयंक ने आश्वस्त हो सांस लिया कि पत्नी और बच्चे ठीक हैं।उन्होंने आसपास टेबुल आदि पर देखना चाहा कि कहीं कोई चिठ्ठी-पत्री तो नहीं है।हारकर उन्होंने पूछा,"क्या बात है सुशीला--कुछ बोलो भी..."
सुशीला चुप थी।उसे लग रहा था-"इतनी बड़ी खबर है कि अब तक पूरी दुनिया के लोग जान गये होंगे।आपस मे चर्चाये हो रही होंगी।एक ये है...पूछ रहे हैं जैसे कुछ मालूम ही नहीं।"
"चलोगे भी या नहीं?"उसने लगभग खीझते हुए पूछा।
"मायके ही न?"फोन पर हुई बातों को याद करते हुए मयंक ने पूछा,"वहाँ कुशल तो है ना?"
सुशीला का अन्तःकरण रो पड़ा।सिसकने लगी थी वह।रोते-रोते उसने कहा,"पापा को पुलिस पकड़कर ले गयी है।उन्हें जेल में बंद कर दिया गया है।"
"धत् तेरी की...इतनी छोटी सी बात पर तुमने आसमान उठा रखा है।मैं तो डर ही गया था कि क्या हो गया मेरे ससुराल में...?बड़े आदमी हैं तुम्हारे पापा जी।बड़ी और छोटी हर तरह की समस्याओं से जुझना पड़ता है उनको।हो गयी होगी कोई गलतफहमी पुलिस से...आज पकड़ कर ले गयी है..कल बाईज्जत घर पहुँचा जायेगी।कोई गम्भीर मसला हुआ तो दो-चार दिन और लग जायेंगे।"
"ऐसा होगा क्या?"सुशीला सशंकित सी पूछ रही थी।
"तो तुम क्या समझती हो?जेल जाना वैसे साधारण बात नहीं है,पर बड़े लोगों के साथ बात दूसरी होती है,मुद्दा दूसरा होता है और उनका दृष्टिकोण दूसरा होता है।कभी-कभी जनकल्याण के लिए भी जेल जाना पड़ता है।"
"कुछ भी हो,मुझे डर लग रहा है।हम लोगों को चलना चाहिए।"
पर मयंक मन से तैयार नहीं हो सके।शंका तो उनके मन में भी हुई और आश्चर्य भी। दरअसल गंगाधर जी उस पूरे दियारा क्षेत्र के बेताज बादशाह हैं।विशाल कोठी,बड़ी सी जागीर और एक खास तरह का दबदबा।नेता,सरगना तथा हर महकमे के कर्मचारी साहबानो की यथोचित कद्र होती है उनके यहाँ।प्रभाव इतना कि कहीं कोई विरोध नहीं।विरोध भी कैसे हो?कोई करने वाला बचे तब न...।निकलने के पहले ही काट दिये जाते हैं लोगो के पर।आदमी तड़पता,कराहता उनके आतंक में जीता है,उनकी मर्जी के मुताबिक।
मन की भी विचित्र दशा है।कभी दूर-दराज का अपरिचित आदमी प्राणो से प्यारा हो जाता है और कभी अपना से अपना भी अप्रिय।रिश्ते तो निभाने पड़ते हैं।डाक्टर मयंक की कार तेजी से बढ़ रही थी।मन की गति और भी तीव्र थी।पुल पर पहुँचते-पहुँचते शाम हो गयी।उस पार उनका भी घर है।आज पुल बन गया है नदी पर।आसानी से लोग अपने गन्तव्य स्थान तक पहुँच जाते हैं।पर आज से दस साल पहले कितना कठिन था नदी पार करना।
क्या पुल के बन जाने से ही लोगों की सभी समस्यायें सुलझ गयी हैं?अब भी तो घाटों का उपयोग होता है जब लोग नावों का सहारा लेते हैं।तब नौकायें चलती थीं यहाँ,आठ-आठ,दस-दस नौकायें।मल्लाहों,मछुआरों का कुनबा बस गया है नदी-कूल पर।एक आबादी बिकसित होती गयी है।मछली मारना,नावें चलाना यही धंधा है उन लोगों का।तब भी था और आज भी है।अब भी मछुआरे नदी में जाल फैलाये परिवार के लिए रोटी के जुगाड़ में लगे रहते हैं।नावें चलाना अधिक सुविधाजनक है।इस पार से उस पार जानेवालो की कमी नहीं होती।पार उतराई बहुत कम है फिर भी किसी तरह गुजारा चलता ही है।नदी के दोनो किनारों पर भीड़ के चलते रौनक रहती है। मछुआरिने संगीत सुनाकर अपना मनोरंजन करती हैं।चाय-पानी की दूकाने खुली रहती हैं।
बाढ़ के दिनों में दूसरा ही मंजर सामने होता था।लोग डरे,सहमे नौकाओं में चढ़ते,देवी-देवताओं को गोहराते और राम-राम करते पार होते थे।नदी जब अपना बिकराल रुप दिखलाती है और तीर,कगार सब अपने में समाहित करने लगती है तब त्राहि-त्राहि करने के अलावा कोई उपाय नहीं दिखता।मल्लाहों का जीवन हर तरह से असुरक्षित हो जाता है और भीषण बाढ़ के चलते हर साल तबाही होती है।उनकी झोपड़ियाँ पानी से घिर जाती हैं और उनका सम्पर्क पूरी दुनिया से टूट जाता है।ऐसे में उन लोगों की दशा के बारे में सोचा जा सकता है जिन्हें रोज कमाना है और रोज खाना है। बड़ी-बड़ी हिलोरों और तरंगों पर अपनी नौकाओं को खेते-सम्हालते मछुआरे जीवन-मृत्यु से संघर्ष कर रहे होते हैं।तब जाकर दो मुठ्ठी अनाज पेट मे जा पाता है।अंधकार तो उनके जीवन में है ही,जमीन भी नहीं है उनके पास कि कुछ खेती-बारी कर सकें।उपर से गंगाधर जी का आतंक...पूरे जवार के लोगों को उनसे डरना और जी-हुजूरी करना पड़ता है।नहीं तो,उनके आदमी उपद्रव मचा दें,तहस-नहस कर दें।
पूंजीवादी-व्यवस्था में लाभ प्राप्ति के लिए लोगों के जीवन की बहुत सारी जरुरतों को भुला दिया जाता है या छोड़ दिया जाता है।उसमें किसी के पुश्तैनी कारोबार को भी महत्व नहीं दिया जाता,वल्कि उनपर कुठाराघात ही किया जाता है।घाटों की बन्दोबस्ती भी कुछ-कुछ इसी तरह की योजना है।यह कभी नहीं देखा जाता है कि यह काम उन लोगों को मिले जो पुश्त-दर-पुश्त इन्हीं लहरों पर जन्म लेते और मर-मिटते हैं।एक तरफ आम आदमी-हरिजन,चमार,दुसाध,मल्लाह-मछुआरे के उत्थान की बातें होती हैं,दूसरी तरफ उनकी बुनियादी जरुरतों,अधिकारों पर कुठाराघात होता है।
पुल के उस पार अभी भी काफी भीड़ थी।लोगों ने पहचान लिया था-डाक्टर मयंक को,सुशीला को। चिल्ला उठी थी पूरी भीड़--हत्यारे की बेटी,हत्यारे का दामाद..।रो पड़ी थी सुशीला।
"हुआ क्या है? कैसे हुआ यह सब?"मयंक ने अपने परिचित रमई को बुलाकर पूछा।
"कुछ मत पूछिये भाई...जो भी हुआ,बहुत बुरा हुआ...विषाद और क्रोधयुक्त हो उसन्रे कहा।
"कुछ बताओ भी...."
रमई का गला भरा हुआ था।आवाज लड़खड़ा रही थी।उसने अपनी बात जारी रखी,"आप तो जानते ही हैं कि नदी किसी एक की बपौती नहीं होती।उसका दावेदार कौन है,तय करना मुश्किल है।नदी,पहाड़,रोशनी,हवा,पानी को अपने अधिकार में बाँधने का प्रयास ही गलत होता है।यही हुआ है यहाँ।जो पैरों तले नहीं आता उसे हाथी के पैरों से कुचलवा दिया जाता है।जो आँखों की तरेर से नहीं डरता उसे बंदूक की गोलियों से छलनी कर दिया जाता है।जो गुर्राहटों से नहीं सम्हलता उसे गूंगा और अपंग बना दिया जाता है।यही दशा है इस क्षेत्र की,इस राज्य की,इस देश की और मिट्टी की।"
एक मनहूसियत सी छायी थी चारो ओर।सुशीला का रोना जारी था।मयंक ने उसे समझाने का प्रयास किया,पर,सब बेकार।भीड़ चिल्ला रही थी,नारे लगा रही थी--अरे जाकर उन घरों को देखो जिनके लोगों को मार डाला है तुम्हारे बाप ने...हत्यारा कहीं का।
रमई ने बताना जारी रखा,"आप तो जानते ही होंंगे कि यहाँ की अधिकांश नदियों के घाटों की बन्दोबस्ती सरकार खुली नीलामी के तहत करती है।पैसे और बाहुबल के आधार पर यहाँ का ठीका गंगाधर जी ले लेते हैं और उनके आदमी सारी व्यवस्था देखते हैं।धीरे-धीरे नौकाओं की जगह स्टीमर ने ले लिया।उसमें लाभ अधिक है।प्रति व्यक्ति पार उतराई का भाड़ा दो रुपया है जबकि अभी भी नाव वाले पचास पैसे में पार ले जाते हैं।स्टीमर में एक साथ सैकड़ो की तादात में यात्री पार होते हैं।"
"गड़बड़ी वहीं हो गयी।शुरु-शुरु में ऐसा हुआ तो बहुत बवाल मचा था,"मयंक ने मन ही मन याद किया और सोचा कि तभी से एक तरह की टकराहट शुरु हुई होगी।
रमई ने बताया,"मछुआरों,मल्लाहों का यही आश्रय-स्थल है।पहले उन लोगों ने एक समिति गठित की और प्रयास में थे कि इस घाट का जिम्मा उन्हें ही मिले।पर सरकारी कानून और गंगाधर जी के धन,बुद्धि और प्रभाव के चलते संभव नहीं हो सका।हारकर मल्लाहों ने उनके पैर पकड़े,रोये,गिड़गिड़ाये।
कुछ और भी समस्याये थीं।मसलन जब लोग नदी किनारे अपने बच्चों का बाल-मुण्डन संस्कार करते हैं तो मूँज की रस्सी का तनावा इस पार से उस पार तक तानते हैं।साडी,धोती,रुपया-पैसा और भोजन मल्लाहों को दिया जाता है।इस काम में स्टीमर का उपयोग नहीं हो सकता।इसके लिए छोटी नौका या डोंगी ही पर्याप्त होती है।कभी-कभी जब स्टीमर खुलने में देर होती है और लोगों को जल्दबाजी में पार जाना होता है तो वे स्टीमर का टिकट लेकर नौकाओं से पार हो जाते हैं।यह सोचकर गंगाधर जी ने अलग से रसीद की व्यवस्था कर दी और मछुआरों को छूट मिल गयी।दस रुपया प्रति नौका प्रति फेरा गंगाधर जी को देना पड़ता था।
सुशीला चुप होकर रमई की बातों को बहुत ध्यान से सुन रही थी।उसका रोना बंद हो गया था।शाम ढलने लगी और चारो ओर अंधेरा फैलने लगा था।
"तब दिन का एक बज रहा था,"रमई ने घटना का वर्णन करना शुरु किया,"स्टीमर खुलने में बहुत देर थी।सूरज माथे पर चमक रहा था और वातावरण में गर्मी थी।पार जाने वाले कुछ लोग एक नौका में सवार हो गये।लगभग सोलह-अठारह आदमी होगें।लहरों को काटती,तैरती हुई नौका उस पार जा रही थी।खुशी और उल्लास था लोगों में कि जल्दी पार पहुँच जायेंगे।
गंगाधर जी के लोगों को यह बहुत नागवार गुजरा,"यह तो सरासर अवहेलना है।इन्हें सबक सिखाना ही होगा।आये दिन ये नाव वाले एक-आध फेरा लगा ही देते हैं।"
समवेत स्वर उभरा,"हाँ,सबक सिखाना ही पड़ेगा।"
नौका के पीछे स्टीमर खोल दिया गया।तब उनके चेहरे खौफनाक थे और इरादे खतरनाक।मल्लाहों को स्थिति की नाजूकता समझ में आ गयी थी।उन्होंने तेजी से पतवार चलाना शुरु कर दिया।दूसरी तरफ मशीनी ताकत थी।हाड़-मांस का आदमी भला क्या मुकाबला कर सकता था?नौका के बीच मँझधार में पहुँचते-पहुँचते स्टीमर ने धर दबोचा।
हवा खामोश हो गयी मानो दम साधे प्रकृति-नटी अथाह जल-राशि के उपर मानव द्वारा मानव के बिनाश की लीला को देख सके।स्टीमर के उद्वेलन से ऊँची-ऊँची लहरें उथने लगी।नाव डगमगाने लगी।
यात्री त्राहि-त्राहि कर उठे।'बचाओ-बचाओ" का आर्तनाद गूँज उठा।पर,उस करूण-क्रंदन को सुनने वाला कोई नहीं था।उन दरिंदों पर आसुरी शक्ति हावी हो गयी थी।उनकी आँखों में रक्त-पिपासा की ज्वाला धधक रही थी और उनके चेहरे दहशत पैदा कर रहे थे।
सुशीला दम साधे उस अमानवीय घटना की कथा सुन रही थी।मयंक की आँखों में एक तरह का कारूणिक दृश्य उभर रहा था।सुशीला आतंकित हो उठी थी।
रमई ने बताया," स्टीमर से एक आदमी रस्सा लेकर नौका में कूद पड़ा और नाव को बाँध दिया।फिर शुरु हो गया जीवन-मृत्यु का संघर्ष वाला खेल।क्या जान-बुझकर ऐसी अवहेलना की थी उन मल्लाहों ने?कई दिनों से भरपेट भोजन नही मिला था उनके परिवारों को।वे कहाँ से दस रुपया लाते और रसीद लेते।वे रोये और गिड़गिड़ाये थे और आश्वासन भी देना चाहे थे कि इस खेप में कमाकर दस रुपया चुका देंगे।"
नदी के दोनो तीरों पर बेतहाशा भीड़ एकत्र होती जा रही थी।लोग जोर-जोर से चिल्ला रहे थे,शोर मचा रहे थे,गालियाँ दे रहे थे और हो रहे इस कुकृत्य पर मुठ्ठी भिंचे,लाचार हो देख रहे थे।बीच धारा में स्टीमर की गति कभी तेज होती और कभी धीमी।बँधी हुई नाव उलटने-उलटने को होती।जल-तरगों पर उथल-पुथल मची हुई थी।ऊँची-ऊँची तरंगों से छपाक-छपाक पानी नाव में भरने लगा।यात्रियों के होशोहवाश गायब थे।उनकी करुण चित्कार दोनों किनारों तक सुनाई पड़ रही थी।लग रहा था कोई भयानक घड़ियाल जल-जीवों को रौंद रहा है या कोई विशाल हाथी किसी सुन्दर लता-कुंज को तहस-नहस कर रहा है।
आखिर आदमी की हार हो गयी।मृत्यु जीत गयी और उसके मशीनी जबड़े तले आदमी का अस्तित्व चूर-चूर हो गया।नौका नदी की अथाह जल-राशि में विलीन हो गयी।डूब गये सारे लोग।
"हे, भगवान," सुशीला ने कहा और रो पड़ी।रमई भी रोने लगा।मयंक की आँखो में भी जल की बूंदें झलकने लगीं।
पुलिस ने वह महत्वपूर्ण काम किया जो पहले कभी नहीं की थी।गंगाधर जी का पकड़ा जाना सबसे बड़ी घटना थी।मसला यह नहीं कि कितने मरे और कितने बचे।बात आतंकवादी उन कृतघ्न कुकृत्यों की है जहाँ चंद रुपयों के लिए लोगों के जीवन को ही समाप्त कर देने की साजिश की जाती है।क्या इस नृशंस हत्याकांड के जिम्मेदार हत्यारे दण्डित हो पायेंगे?क्या इस जलक्षेत्र में नदी के झूठे दावेदारों के आतंक से मुक्त हो पायेगी जनता?
सुशीला के मन-मस्तिष्क में आँधियाँ चल रही थीं।वह हतप्रभ थी और उसका जार-जार रोना जारी था।
"यह रोना किस काम का सुशीला?जरुरत तो अब उन परिवारों के लिए कुछ करने की है जिनके आदमी डूबाकर मार डाले गये हैं।चलो सुशीला, उनके आँसू पोंछने हैं और कुछ करना है उनके लिए," मयंक ने कहा।
कार एक झटके से आगे बढ़ गयी।