कविता
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विजय कुमार तिवारी
जागते ही खोजती है अखबार,
झुँझलाती है-
कि जल्दी क्यों नहीं दे जाता अखबार।
अखबार में खोजती है-
नौकरियों के विज्ञापन।
पतली-पतली अंगुलियों से,
एक -एक शब्द को छूती हुई,
हर पंक्ति पर दृष्टि जमाये,
पहुँच जाती है अंतिम शब्द तक।
गहरा निःश्वांस छोड़ती है,
नाउम्मीदी की चढ़ जाती है
एक परत उसकी सोच पर,
और बढ़ जाती है-
अगले अखबार के विज्ञापन की प्रतीक्षा।