पुरानी यादें
विजय कुमार तिवारी
1983 में 4 सितम्बर को लिखा-डायरी मेरे हाथ में है और कुछ लिखने का मन हो रहा है। आज का दिन लगभग अच्छा ही गुजरा है।ऐसी बहुत सी बातें हैं जो मुझे खुश भी करना चाहती हैं और कुछ त्रस्त भी।जब भी हमारी सक्रियता कम होगी,हम चौकन्ना नहीं होंगे तो निश्चित मानिये-हमारी हानि होगी।जब हम अपनी हानि के लिए दूसरों को जिम्मेदार मानेंगे तो यह हमारा पतन होगा।विगत महीनों से मैंने यही किया है और दूसरों पर दोषारोपण करता रहा हूँ।बहुत सालों बाद समझ सका हूँ कि मेरे हानि-लाभ,उत्थान-पतन और सुख-दुख का जिम्मेदार मैं हूँ।इस रहस्य को समझ लेने के बाद मेरा जीवन सरल हो गया है। सारे झगड़े खत्म हो गये हैं।
07/09/1983 को लिखा-घर के बाहर पूरे वातावरण में विचित्र सी स्थिति व्याप्त है-कुछ गीला-गीला सा,रिमझिम फुहार और मधुर-मधुर फूँहीं,ठंडा-ठंडा सा मौसम।भीतर जैसे मन ने कुछ खोजा हो,कुछ चाहा हो।पहाड़ो का आकर्षण मुझे खींच रहा है,बुला रहा है अपने पास,अपने अंक में।मैं हूँ कि भ्रमण कर रहा हूँ इन कोयला की खदानो में।विचित्र दशा है-प्रेम का अहसास भी है और उदासीनता भी।यही उदासीनता मनुष्य को खत्म करने लगती है।अपने सारे रिश्तों को निभाना चाहिए और पूरी जीवंतता के साथ।मौन होने और उदासीन होने मे फर्क होता है।
08/09/1983-आज का दिन बहुत बोझिल सा रहा।जिन्दगी में सत्य और झूठ हास्यास्पद सा लगता है।असम-तेजपुर की यात्रा से लौटा हूँ।एक ऱिश्तेदार जेल में है।पहले भी वह जेल जा चुका है।आज उस पर डकैती के जुर्म का आरोप है।पहले मारपीट और चोरी का आरोप था।आज वह उस दिशा में चल पड़ा है जिधर कभी नहीं जाना चाहिए।छद्म नाम-बिरजू प्रसाद सिंह,हथियार के साथ जीप से डकैती का प्रयास और पकड़ा जाना,बहुत दुखद है।अब उससे सावधान होने की जरुरत है।गलत और झूठ बोलता है। उसके तन-मन में आक्रोश भरा है।परमात्मा उसे इस दलदल से निकाले और सही मार्ग में चलाये।मिलने गया उससे जेल में।उसे पछतावा नहीं है और सभी रिश्तेदारों के प्रति कटुता है।
14/09/1983-आदमी के लिए यहीं नर्क है। सड़कें धूल भरी और टूटी-फुटी हैं। साधन-सुविधा नहीं है और गरीबी ने मनुष्य को लाचार कर दिया है।श्री राम पारस सिंह,प्रधानाध्यापक,डी.ए.वी हाई स्कूल,तसरा के साथ उनके घर चला गया और निराला रचनावली-प्रथम भाग ले आया।दर्द अनेक प्रकार के होते हैं और प्रत्येक आदमी किसी न किसी दर्द से जुझता ही रहता है।संघर्ष करना चाहिए और जीतना चाहिए।बहाना मत बनाईये,लग जाईये,जीत आपकी ही होगी।"जुही की कली" निराला जी की सशक्त रचना है।मैंने लिखा-
वह भयंकर रात,
यह सुखकर उजाला,
धरोहर है जीवन की अगली पादान का।
मेरा-तेरा,तेरा-मेरा
कहीं कुछ भी नहीं है।
सारे अमानवीय बोझों को मुझे दे दो,
ले लो सारे सुखों को।
17/09/1983-लम्बे दुख की अनुभूति के बाद सुख का हल्का अहसास भी आह्लादित कर देता है।किसी साधन की तलाश में मोड़ पर देर से खड़ा था। बरसात शुरु हो गयी।पहले हल्की सी फिर तेज वौछार के साथ।सामने वाले दोमंजिले मकान की छत पर कोई औरत बैठी थी।अक्सर बैठी रहती है और सड़क पर आते-जाते लोगों को चुपचाप देखती रहती है।इतनी वौछार का उसपर कोई प्रभाव नहीं है।बिना हिले-डुले,चुपचाप बैठी है।शायद वह सामान्य नहीं है या पूरी तरह पागल हो चुकी है। बगल वाले राठौर- मेन्सन के कोने पर,कुँए के पास कोई औरत जोर-जोर से गाली दे रही है।अंग्रेजी में बड़बड़ाती है।शरीर पर चिथड़ा है जो उसके तन को ढक नहीं पाता।नंगी,धूल से भरी,बिल्कुल पागल।लोग बताते हैं कि वह मेडिकल की छात्रा थी और अपने साथ पढ़ने वाले लड़के से प्यार कर बैठी।कल्पना कीजिए-कितनी गहरी पीड़ा हुई होगी और सदमा पहुँचा होगा?
भारत में जीना तभी सार्थक है जब ब्रेख्त का यह शब्द-वाक्य उचित ना लगे-"ईश्वर मर गया है,मैं साक्षी हूँ।"
मैं मानता हूँ कि ईश्वर है और उसके बिना दुनिया चल ही नहीं सकती।मेरी समझ में नहीं आता कि आदमी उस ईश्वर को क्यों खींचता है अपने साथ?
सारिका पत्रिका के सितम्बर अंक में जैनेन्द्र कुमार ने लिखा है,"अगर पैसा पति-पत्नी के बीच आ जाता है तो बैध भोग ही,विचारिये कि क्या व्यभिचार नहीं बन जाता?"
19/09/1983 को एक कविता लिखी--
शौकीन
कल शौकीनों की दुनिया में
शौकीन बना था,
खेल रही थीं,तैर रही थीं-
जलचर मीनें।
नभ निरभ्र,मन शुभ्र
चन्द्रिका छिटक रही थी।
वे शौकीन,खुदा के बन्दे
मन के कायर,तन के कुन्दे।
चला भयानक दौर सुरा का,
हुआ ब्यग्र मन-
रात कहाँ तक जाग सकेगी?
षोडसी या बीस साल की सुन्दरी सलोनी
कमनीय निगाहें,सुडौल सी बाँहें
जाग रही है,नाच रही है।
जाग रहा है-वह एक मुसाफिर,
मस्ती में है सारा आलम।
प्यालों में जाम भरे हैं
सारे शौकीन लुढ़के पड़े हैं।
22/9/1983-मदन लाल मधु की पुस्तक-"गोर्की और प्रेमचन्द दो महान प्रतिभायें" आलमारी से निकाल लाया। प्रेमचन्द की आर्थिक तंगी और लिखते रहने का उत्साह पढ़कर मन में बहुत आदर का भाव उभरता है।साथ ही एक संकल्प भी कि किसी भी परिस्थिति में रहते हुए सृजन करते रहना चाहिए।
रक्षाबंधन के दिन कुछ फोटो खींचे गये थे। फोटोग्राफर फोटो दे गया था।कुछ पहले के फोटो भी निकाल लाया और देखने लगा।पुरानी तस्वीरों को देखने का अपना आनन्द होता है।स्नातक की पढ़ायी के समय की तस्वीरों में प्रिय मित्र और सहपाठी प्रियव्रत पाठक और मेरे छोटे भाई अजय की थी।मन बोझिल हो उठा। काश, ये आज भी हमारे साथ होते।
दक्षिण भारत-भ्रमण के समय की तस्वीरें,जम्मू-काश्मीर की यात्रा की तस्वीरें,उत्तर-भारत और हिमालय की यात्रा की तस्वीरें,दिल्ली यात्रा की तस्वीरें,असम-मेघालय यात्रा की तस्वीरें,कलकत्ता-प्रवास की तस्वीरें और कोयलांचल की तस्वीरें उन सारी स्मृतियों को ताजा कर रही हैं। स्वयं को सुखी और जीवन्त बनाये रखने का यह भी तरीका है कि बीच-बीच में पुराने एलबम देखे जायें।बहुत देर तक इन तस्वीरों के साथ डुबता-उतराता रहा। जीवन के कई मधुर क्षण जीवन्त हो उठे और मन आनन्दित आह्लादित हो उठा।पुतलियाँ चमक उठी,धड़कन तेज हो गयी और प्यार ने अंगड़ाई ली।