मौलिक कविता 21/11/1984
कोख की रोशनी
विजय कुमार तिवारी
तुम्हारी कोख में उगता सूरज,
पुकारता तो होगा?
कुछ कहता होगा,गाता होगा गीत?
फड़कने नहीं लगी है क्या-
अभी से तुम्हारी अंगुलियाँ?
बुनने नहीं लगी हो क्या-
सलाईयों में उन के डोरे?
उभर नहीं रहा क्या-एक पूरा बच्चा?
तुम्हारे लिए रोते हुए,
अंगली थामकर चलते हुए।
उभर रहा है सूरज अपने पूरे वजूद के साथ,
पूरी जिद्द,पूरी किलकार,पूरे तौर से मचलता,रूठता।
रोशनी जागती रहेगी,बंद नहीं होगी रोशनी,
तबतक नहीं--
ताकि पूरी तासीर,
सही जीवन का सही आकार।
तुम्हारे चेहरे पर उभरते,उमगते भाव।
नहीं,नहीं उसे रोका नहीं जा सकता,
रुक नही सकती उसकी मृदुल मुस्कान
रुक नहीं सकती रोशनी
तुम्हारे कोख में उग रहे सूरज की।