मध्य प्रदेश में सियासत का रंग बदले हुए हम सब ने देखा है पिछले 15 सालों से मध्य प्रदेश के तख़्त पर बैठी भारतीय जनता पार्टी को अपना तख़्त छोड़ना पड़ा और इसी के साथ कांग्रेस का वनवास ख़त्म हो गया। वहीँ सत्ता बदलने के बाद जहां लोगों में आशा की नई उम्मीद जाएगी है तो कांग्रेस पर भी बड़ी ज़िम्मेदारी भी आन पढ़ी है।
मध्य प्रदेश में साल के आखरी महीने में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को एक लम्बे अरसे बाद सफलता मिली। बता दें कि कांग्रेस और भाजपा में ज्यादा अंतर नहीं था , जहाँ कांग्रेस को 114 सीटें मिलीं, वहीं भाजपा की झोली में 109 सीटें रहीं। कांग्रेस के पास बहुमत से दो सीटें कम थीं, उसे चार निर्दलीय, दो बसपा और एक सपा विधायक का समर्थन मिला और इस तरह उसके पास कुल 121 विधायकों का समर्थन है।
वहीं कांग्रेस ने मुख्यमंत्री पद के लिए कमलनाथ को चुना, वे 17 दिसंबर को शपथ भी ले चुके हैं, लेकिन मंत्रिमंडल में किसे जगह दी जाए, इस बात को लेकर कांग्रेस के अंदरखाने खींचतान अभी भी जारी है।
फ़िलहाल मध्य प्रदेश की सत्ता तो कांग्रेस के हाथ में आ गई है मगर पार्टी में चलती खींचतान की परम्परा आज भी बरक़रार है। मुख्यमंत्री की कमान भले ही कमलनाथ के हाथ में आ गई हो, मगर उन्हें भी उस खींचतान के दौर से गुजरना पड़ रहा है, जो कांग्रेस की परंपरा रही है। बीते तीन दशक से राज्य की सियासत में कमलनाथ का गुट सक्रिय रहा है, यह बात अलग है कि उनकी राजनीति केंद्र की रही है।
भले ही कमलनाथ अब तक कांग्रेस की सरकारें बनाने और मुख्यमंत्री के चयन में अहम भूमिका निभाते रहे हों, मगर पहली बार है जब उन्हें भी इस गुटबाजी से दो-चार होना पड़ा है। पहले मुख्यमंत्री बनने के लिए कई दिनों तक जूझे, और अब अपना मंत्रिमंडल बनाने के लिए जूझ रहे हैं। उनका मुकाबला युवा चेहरे ज्योतिरादित्य सिंधिया से है, यह बात अलग है कि कमलनाथ के साथ दिग्विजय सिंह भी खड़े और डटे हैं।
सूत्रों की माने तो कांग्रेस ने यह चुनाव परोक्ष रूप से सिंधिया को आगे कर लड़ा था। भाजपा के निशाने पर भी सिंधिया ही थे। यही कारण रहा कि सिंधिया को मुख्यमंत्री बनाने की मांग उठी, मगर कांग्रेस ने अगले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर अपनी रणनीति बनाई और कमलनाथ को राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया।
अब मंत्रिमंडल और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के चयन की बात सामने है। कांग्रेस को इन दोनों मामलों में सिंधिया को महत्व देना होगा, ऐसा न करने पर कांग्रेस सवालों में घिर सकती है।साथ ही अब सवाल ये भी उठ रहे हैं कि कांग्रेस ने सत्ता तो पा ली है मगर क्या वह लोगों की अपेक्षाएं पूरी करने और कार्यकर्ताओं में उत्साह जगाए रखने में कामयाब हो पाएगी? दूसरी ओर भाजपा भी विपक्ष में कमजोर नहीं है। इन स्थितियों से पार्टी को निकालना कमलनाथ के लिए आसान नहीं होगा।