एक शख्स जो खुद दो कदम नहीं चल सकता है लेकिन जिसने देश को हज़ारों कदम आगे बढ़ा दिया है। अपनी शारीरिक विकलांगता से हज़ारों लोगों की मानसिक विकलांगता को कुचलता ये शख्स आज उन लोगों के लिए मिसाल पेश कर रहा है जिन्होनें ज़िंदगी के आगे घुटने टेक दिए हैं ... आइए सुनते हैं उसकी कहानी उसकी ज़ुबानी… मेरा नाम गोपाल खंडेलवाल है. 1969 में मेरा जन्म हुआ था और 1996 तक मैं चला हूँ. तब मेरी उम्र 27 साल थी. साइंस का स्टूडेंट था, घर परिवार सब ठीक था. आगरा के एक मेडिकल कॉलेज में मेरा चयन हो गया था. काउंसलिंग से होकर आ रहा था, साथ में कुछ और दोस्त भी थे. मैं गाड़ी चला रहा था और लखनऊ के आसपास मेरा एक्सीडेंट हो गया. मेरे निचले हिस्से ने काम करना बंद कर दिया. दो साल अस्पताल में भटकता रहा. फिर मैं बनारस से मिर्जापुर आ गया. सब मेरा साथ छोड़ चुके थे. बस मेरे एक दोस्त थे अमित दत्ता जिन्होंने मेरी हमेशा मदद की. यहां उनकी एक ज़मीन थी तो मेरे लिए एक कमरा बना दिया, वहीं रहता हूँ. परेशानी यह थी कि दिन भर क्या करूं. मिर्ज़ापुर नक्सली क्षेत्र है. आज भी यहां मुसहर जाति है जिनके बच्चे मेरे सामने चूहे पकड़कर खाते थे. मैंने उन्हें ऐसा करने से रोका. उन्हें बुलाया, समझाया और उन्हें पढ़ाने लगा. धीरे धीरे ये बच्चू स्कूल भी जाने लगे. फेसबुक पर मैंने अपने दोस्तों से मदद मांगी. अब नोवल शिक्षा संस्थान के तहत 60-70 बच्चों को मैं पढ़ाता हूँ. 1999 से मैंने पढ़ाना शुरू किया था, आज 20 साल हो गए हैं मुझे बच्चों को पढ़ाते हुए. पहले लोगों को यकीन ही नहीं था कि एक दिव्यांग कैसे बच्चों को पढ़ाएगा. लेकिन धीरे धीरे बच्चे जब पढ़ने लगे तो लोगों का भरोसा कायम हुआ. 3-4 साल के बच्चे मेरे पास आने लगते हैं. इंटर तक मैं उन्हें पढ़ाता हूँ और एक पैसा नहीं लेता हूँ. पहले तो यहां जातिवाद बहुत था इसलिए मुझे शुरूआत में बहुत दिक्कत होती थी. छोटी जाति के लोगों को पढ़ाता था तो बड़ी जाति के लोग नाराज़ हो जाते थे. मैंने उन्हें बहुत समझाया. सबको पढ़ाना बहुत ज़रूरी था. मैंने समझाया जातिवाद कुछ नहीं होता. इस चक्कर में फंसेंगे तो पढ़ाई कैसे हो पाएगी. धीरे धीरे लोग मानने लगे. अब तो ऐसा है कि मुसहर से लेकर चमार के बच्चे और ठाकुर के बच्चे सब एक साथ पढ़ते हैं. शुरूआत में बहुत धमकियां मिलती थी, लेकिन मेरे दोस्त अमित मेरी बहुत मदद कर देते थे. फिर मेरी इस पहल की चर्चा मिर्ज़ापुर से बाहर भी होने लगी. अब तो मुझे मुंबई भी बुलाया गया जहां विवेक ओबरॉय और अनुष्का शर्मा जैसी हस्तियों ने मुझे बुलाकर बहुत इज्जत दी है. दिन भर बच्चों को पढ़ाता हूँ, फिर शाम के बाद अकेले हो जाता हूँ. परिवार को बहुत याद करता हूँ. चाहता हूँ मेरा भी एक परिवार होता. मेरे कुछ मित्र हैं जो मेरी मदद कर देते हैं. कोई खाने का इंतज़ाम कर देता है, कोई दवाई का खर्चा वहन कर लेता है. इस बीच मेरे माता-पिता का निधन हो चुका था. भाईयों ने साथ छोड़ दिया. लोगों को लगा यह खत्म हो गया है, वो मेरी मौत का इंतज़ार करते रहे. लेकिन मुझे जीना था, मैं जी गया.