Hindi poem -Nida Fazli नयी-नयी आँखें नयी-नयी आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन, अब घर अच्छा लगता है । मिलने-जुलनेवालों में तो सारे अपने जैसे हैं जिससे अब तक मिले नहीं वो अक्सर अच्छा लगता है । मेरे आँगन में आये या तेरे सर पर चोट लगे सन्नाटों में बोलनेवाला पत्थर अच्छा लगता है । चाहत हो या पूजा सबके अपने-अपने साँचे हैं जो मूरत में ढल जाये वो पैकर अच्छा लगता है । हमने भी सोकर देखा है नये-पुराने शहरों में जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है ।