बच्चों का नाम जहाँ आता है वहां बचपने की एक तस्वीर आँखों के सामने आ जाती है, पर बदलते समय के साथ इस बचपन की तस्वीर धुंधली होती जा रही है। रोज़ाना हम सड़कों पर कूड़ा उठाते बच्चों को देखते हैं और उन्हें देखते ही हमारे ज़हन में बाल मजदूरी का ख़्याल आता है, पर मांजरा यहां कुछ और ही है बाल मजदूरी नहीं बल्कि ये कहानी जुड़ी है बंधुआ मजदूरी से। इस कहानी की कई कड़ियाँ हैं। जो एक नहीं बल्कि न जाने कितनी गलियों से गुज़रती है। दिल्ली को भारत का दिल कहा जाता है पर इस दिल में न जाने कितने मासूम रोज़ अपने बचपन को दांव पर लगाते है।
रिपोर्ट्स की माने तो -
भारत में हर घंटे 7 बच्चे लापता होते हैं, जिनमें से 3 कभी नहीं मिलते
सालभर में यह आंकड़ा लगभग 50 हजार को पार कर जाता है।
दिल्ली के हर 5 स्ट्रीट चिल्ड्रेन में एक बच्चा कूड़े के कारोबार में है
बिहार, यूपी, पश्चिम बंगाल और असम से सबसे ज्यादा बच्चे दिल्ली लाये जाते है
ये कहानी है उन मासूमों की जिनकी सुबह शुरू होती है कूड़े से और शाम भी ख़त्म होती है कूड़े के ढेर से। दरअसल ये बच्चे परिवार से दूर ठेकेदारों के ज़रिये राजधानी में दाखिल होते हैं। बच्चों को लेकर काम करने वाले संगठनों का इशारा मानव तस्करी की ओर भी है।बता दें इन बच्चों को कई जगहों से इकट्ठा किया जाता है और परिवार से दूर इन्हें कई बच्चों के साथ एक झुंड में किराय के कमरे में रखा जाता है और इन्हें ठेकेदारों के द्वारा महीने के हिसाब से पैसे मिलते हैं और ये पैसे इन्हें इनकी उम्र और इकट्ठे किये जाने वाले रोज़ के कूड़े के अनुसार दिए जाते हैं। ठेकेदारों के पास एक नहीं बल्कि कई बच्चों का समूह होता है किसी ठेकेदार के पास 20− 25 बच्चे होते हैं तो किसी के पास 10−15।
हाथ में बोरी और कूड़े में काम की चीजें तलाशती नजर। ना गंदगी और बदबू से परेशानी और न ही झुलसाते सूरज की फिक्र। ये बच्चे बस अपनी दिहाड़ी पूरी करने और चंद रूपये कमाने का काम कर रहे हैं। जिसके लिए या तो इनके माँ- बाप ने इन्हें ठेकेदारों को इन्हे सौंपा है या फिर इनको कहीं से उठाया गया है। ये बच्चे मजबूरी में बस अपना काम कर रहे हैं और इसके चलते चंद लोग पैसे कमाने की होड़ में इन मासूमों का बचपन कुचल कर अपने आशियाने सजा रहे हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक ये ठेकेदार 5 से 13 साल तक की उम्र के बच्चों को बिहार, यूपी, पश्चिम बंगाल और असम से दिल्ली सप्लाई करते हैं। कई बार इस काम के लिए इन बच्चों के गरीब और मजबूर मां−बाप की मंजूरी भी शामिल होती है।तो कई बार ये ज़बरदस्ती इस दलदल में ढकेल दिए जाते हैं। दिल्ली आते ही ये मासूम पैसे कमाने की मशीन बन जाते हैं और बता दें कि इन्हें दिन के हिसाब से दिहाड़ी नहीं मिलती बल्कि कूड़े के वज़न और इनके उम्र के मुताबिक महीने के अंत में पैसे दिए जाते हैं।
कई सर्वों की मानें तो दिल्ली के हर 5 स्ट्रीट चिल्ड्रेन में एक बच्चा कूड़े के कारोबार में है।जिसमें पूर्वी दिल्ली, उत्तर पूर्वी दिल्ली और पश्चिमी दिल्ली में हालात ज्यादा खराब हैं, जहां हर चार स्ट्रीट चिल्ड्रेन में एक बच्चा इस कारोबार से जुड़ा है।बता दें ऐसे तो दिल्ली में स्ट्रीट चिल्ड्रन की संख्या करीब 51 हजार है और जिसमें से लगभग 10 हज़ार बच्चे कूड़े के कारोबार में शामिल हैं।
राजधानी दिल्ली में कूड़े और कबाड़ का कारोबार करोड़ों का है, जिससे करीब डेढ़ लाख लोगों के परिवार चलते हैं। बच्चों के लिए काम करने वाले बचपन बचाओ सरीखे संगठनों को इसकी खबर तो है ही, लेकिन उनकी मानें तो इस धंधे से मानव तस्करी और दूसरे कई तरह के गिरोह भी जुड़े हैं।
डॉक्टरों की मानें तो गंदगी में रोजी रोटी तलाशते देश के भविष्य का वतर्मान भी खतरे में है। उन्हें खाने-पीने से लेकर ब्लड संक्रमण की बीमारी का भी खतरा रहता है।बच्चों के गुमनाम होते बचपन और देश के भविष्य का यूँ कूड़े के दलदल में धंसना कहीं न कहीं देश की जड़ों को खोखला करता जा रहा है।