सोना के चेहरे पर सुबह की पहली सूरज की किरण पड़ती है तब पहली बार वो अपनी पलके झपकाती है और उसकी आंखो से आंसूओं का सैलाब उमड़ पड़ता है। तभी वो धीरे-धीरे जल चुकी अपनी मां की अग्नि की ओर बढ़ने लगती है जिसकी लकड़ी के जल चुके कोयलों में अब भी बहुत अधिक लालिमा और गर्मी बची हुई थी। वहां सोना अपने छोटे से शरीर को देखती है और फिर अपनी मां की जलती हुई आग को देखकर रोने लगती है और कहने लगती है। हे भगवान, तूने मुझे ऐसा क्यों बनाया? मुझे इतना छोटा और मजबूर क्यों बनाया? मैं जानती हूं कि मैं अपनी मां की ही तरह हूं लेकिन क्यों हमें इतना कमजोर, मजबूर और लाचार बनाया और उन लोगों को इतना ताकतवर?
मुझे नहीं जीनी ऐसी लाचार और बेबस जिन्दगी। जहां जीने के लिए कुछ भी न बचा हो। मां - मैं भी तुम्हारे ही पास आ रही हूं। बस बहुत गया, अब मैं और अधिक बर्दाश्त नहीं कर सकती। पिछले 15 सालों से मैं इस 5 साल के छोटे से शरीर में और कैद होकर नहीं रहना चाहती। ऐसी बेमानी जिन्दगी का क्या फायदा। यह कहते हुए, वो जलते अंगारों में कूदने ही लगती है, तभी उसे एक मजबूत हाथ थाम लेता है, जो उसके फौजी पिता गंगाधर पाण्डे का था। वो अपनी बेटी को गले से लगाकर रोने लगता है और कहता है - बेटी, जो गांववालों ने करना था, कर लिया। वह समय ही कुछ ऐसा था कि हम उस होनी को टाल न सके। लेकिन तुम अपने को कमजोर और लाचार न समझो। अगर भगवान ने तुम्हें ऐसा बनाया है तो उसके पीछे भी जरूर कोई मकसद होगा। अब चलो यहां से हमें अब और अधिक यहां नहीं रूकना चाहिए। बाकी बात अब हम घर चलकर ही करेंगे।
झोपड़ी में पहुंचते ही गंगाधर अपना सामान बांधने लगता है। पिता को सामान बांधते देख सोना पूछती है। पिताजी - हम कहां जा रहे हैं।
गंगाधर - बेटी, हमें अभी इसी समय कश्मीर के लिए रवाना होना होगा। वहां से मुझे बहुत जरूरी सामान लेने हैं और तुम्हें किसी से मिलवाना भी है।
सोना - किससे?
गंगाधर - वो तुम्हें वही जाकर पता लग जायेगा।
तभी गंगाधर सामान पैक करके सोना को लेकर तुरन्त दूसरे गांव की ओर चल पड़ता है। जहां से उन्हें शहर तक जाने के लिए सवारी मिल गई। शहर से सीधी बस जो कश्मीर जाती थी उसमें दोनों बैठ जाते हैं। सोना को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह सब अचानक से कैसे हो गया और अब वो कश्मीर में क्यों जा रहे हैं। आखिर वहां पिताजी मुझे किससे मिलवाना चाहते हैं। बस के चलते ही ही गंगाधर सोना से बोलता है। सोना - हम जिन्दगी को जितना आसान समझते हैं, वास्तव में वह उतनी आसान नहीं होती। हमें उसमें अनेकों उतार-चढ़ावों को देखना पड़ता है, उससे जूझना पड़ता है। कभी भी मुश्किल समय में हमें हार नहीं माननी चाहिए और यही हमें फौज में भी सिखाया जाता है और बात भी सही है। अगर हमने अपने से कई गुना अधिक ताकतवर दुश्मन की ताकत को देखकर ही हार मान ली तो समझो हम आधी जंग तो पहले ही हार गये। इसलिए कभी भी खुद को कमजोर न समझो, बल्कि अपनी उन कमजोरियों को ही ताकत बना लो, जिसे और लोग तुम्हारी कमजोरी समझते हों।
सोना - मैं कुछ समझी नहीं पिताजी, आप आखिर कहना क्या चाहते हैं। मुझे तो कुछ भी समझ नहीं आया।
गंगाधर - देखो बेटी, मैं यह कहना चाहता हूं, तुम अपने इस छोटे शरीर को अपनी कमजोरी समझती हो, लेकिन यह भी तो देखो, तुम्हारे पास इसके साथ-साथ अपनी आयु से कहीं अधिक बुद्धि भी है। जिसका इस्तेमाल तुम किसी भी अच्छे काम के लिए कर सकती हो। मेरी बात समझ रही हो न। सोना अपना सिर हां में हिला देती है। तभी सोना के पिताजी चुप हो जाते हैं और सोना मन ही मन कभी न खत्म होने वाले ख्याली पुलाव बनाने लगती है।
उधर गंगाधर सोच रहा था कि मैंने सोना के मन में वो बीज तो बो दिया है, जिसके कारण अब उसे जीने का मकसद मिल जायेगा। कम से कम वो उसके सामने तो होगी। अगर आज मैं उसे कोई मकसद न देता तो शायद वो अपनी हीनभावना और बचपन से पड़े उस गहरे मनोवैज्ञानिक तनाव को बर्दाश्त न कर पाती और खुद को ही समाप्त कर देती। मैंने शायद गलत किया कि एक जहर को खत्म करने के लिए दूसरा जहरीला बीज बो दिया लेकिन चाहे कुछ भी हो अपनी बेटी की जिन्दगी की खातिर कुछ भी करना जायज है। तभी उनकी बस रूकती है और कंडक्टर आवाज लगाता है कि कश्मीर की सवारियां उतर जायें। तभी गंगाधर सोना को लेकर बस से उतर जाता है।