गांव में शिवरात्रि का पर्व की तैयारियां जोर-शोर से चल रही थी। गांव के मंदिर में रहने वाली एक महिला जो मंदिर की साफ-सफाई इत्यादि का कार्य करती थी। उसे गांव में बड़े ही आदर की दृष्टि से देखा जाता था। भले ही वह ब्राह्मण कुल से संबंध नहीं रखती थी लेकिन उसमें एक खास बात थी जिस कारण वहां के पुजारी ने उसे उनके मंदिर में रहने के लिए स्थान दिया हुआ था। प्रत्येक शिवरात्रि के दिन मंदिर में उत्सव होता था, उस समय बाहर से आने वाले श्रृद्धालुओं को कुछ नियमों का पालन करते हुए, वहां आने की अनुमति थी। शिवरात्रि के एक दिन पूर्व रात्रि के समय मंदिर में रहने वाली महिला के अंदर देवी का अवतरण होता था और वह गांव के लोगों को उनकी समस्याओं के समाधान बताया करती थी, कई बार उन्हें आने वाली मुसीबतों की चेतावनी भी दिया करती थी। जिससे अपनी समस्याओं का समाधान करवाने दूर-दूर से श्रृद्धालुगण आया करते थे।
शिवरात्रि के पर्व से कुछ सप्ताह पूर्व ही कोढ़ से पीड़ित महिला जो पूर्णतः स्वस्थ हो चुकी थी, वापिस अपने घर गांव में आ चुकी थी। घर से सभी लोग प्रसन्न थे। जैसा कि उसने सभी को बताया था कि उसके समस्त पापों को ईश्वर ने माफ कर दिया है और उनकी ही कृपा से वह फिर पुनः स्वस्थ हो गई है। उसका शरीर पहले की भांति अब दुर्गन्ध नहीं मार रहा था और न ही कोई उसे कोई पीड़ा थी। पर्व के आने से कुछ दिन पूर्व उसके परिवार के अन्य सदस्य जो सदैव मंदिर के प्रत्येक उत्सव और कार्यक्रमों में भागीदारी लेते थे। उन्होंने महिला से कहा कि तुम मां भगवती की कृपा से स्वस्थ हो गई हो तो हमें मां जगदम्बा स्वरूप जो मंदिर में शिवरात्रि से एक दिन पूर्व साक्षात् भक्तों को दर्शन देती हैं और उनके कष्टों का निवारण करती हैं। वहां जाकर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। पहले तो वह महिला थोड़ा झिझकती है लेकिन परिवार के दबाव में मना नहीं कर पाती और जाने को तैयार हो जाती है।
रात्रि के समय में मंदिर को अच्छी तरह से सजाया गया था। गांव में बाहरी लोगों की आवाजाही से थोड़ी हलचल थी। मंदिर के आसपास खाली पड़े खेतों में श्रृद्धालुओं ने टैंट लगाए हुए थे और तरह-तरह के स्वर सुनाई पड़ रहे थे। कोई भजन गा रहा था, कोई माता के जैकारे लगा रहा था। वहीं दूसरी ओर मंदिर के अंदर एक स्थान ऐसा था जहां हवन इत्यादि किया जाता था। उधर एक खुला पाण्डाल बनाया गया था। ताकि वहां अधिक संख्या में लोग एकत्रित हो सकें। इस स्थान पर अन्य दिनों में शादी-विवाह के कार्यक्रम आयोजित किये जाते थे लेकिन शिवरात्रि से एक दिन पहले रात्रि में यहां माहौल कुछ अलग ही था। हवन कुण्ड में आग जलाने के लिए पुजारी और उनके कुछ शिष्य लकड़ियों और अन्य सामग्रीयों का प्रबन्ध कर रहे थे। वह महिला मंदिर के भीतर मां भगवती की प्रतिमा के सामने एकदम गुमसुम बैठी थी। कभी-कभी अचानक से वह चिल्लाती और फिर एकदम शांत हो जाती।
श्रद्धालुगण वहां आसपास एकत्र होना प्रारम्भ हो चुके थे। तभी पुजारी अपने शिष्यों को उस महिला को बाहर लाने का कहते हैं। उनकी आज्ञानुसार शिष्यगण महिला को बाहर लाते हैं। वह बड़े ही नाटकीय ढंग से उस समय धीरे-धीरे चल रही थी। जिसके अंदर माता का प्रवेश होने वाला था, भक्तगण उसे देखकर अत्यन्त उत्साहित हो जाते हैं और माता के जयकारे लगाने लगते हैं। हवनकुण्ड में अग्नि प्रज्जवलित की जा चुकी थी। तभी एक शिष्य ढोलक की थाप बजाने लगता है, जो धीमें से बढ़ते हुए तेज गति में बजाने लगता है। जिसकी ध्वनि प्रत्येक व्यक्ति को जोश से भर देती है।
पुरूष, महिलाएं और बच्चे हवन कुण्ड को चारो ओर से घेरकर खड़े हो जाते हैं और देखने लगते हैं। अग्नि के समक्ष बैठी देवी ढोलक की थाप पर धीरे-धीरे थिरकने लगती है और अपने सिर को चारो दिशाओं में घुमाने लगती है। उसके खुले केश जो जटाओं के रूप में थे। चारो ओर बड़ी तेजी से घूमने लगते हैं। बैठी हुई देवी तभी खड़ी होकर जोर से चिल्लाती है और अपनी आंखों को बड़ा करके देखने लगती है। एकदम सुर्ख लाल आंखों में लगा काला काजल जो उसे और अधिक भयानक प्रतीत कर रहा था। अपनी जीभ बाहर निकालकर हवनकुण्ड के चारो ओर बहुत जोर-जोर से कूदने लगती है। कभी अचानक किसी श्रृद्वालु की ओर रूककर उसे देखते हुए बड़ी तेजी से चिल्लाती है। जिससे कई श्रृद्धालु डर के मारे कांपने लगते हैं। माता को देखकर बच्चों की तो हालत ही खराब थी। जो अपने माता-पिता के पीछे दुबक जाते है और कई दूर भाग जाते हैं लेकिन उत्सुकतावश देखने से नहीं चूकते। आखिर डर का भी तो अलग ही रोमांच है।