वहीं दूसरी ओर झोपड़ी के एक कमरे में बंद सोना किसी तरह खिड़की से बाहर निकलकर गांव वालों का पीछा करने लगती है। सोना के पिताजी जिन्हें गांववालों ने रस्सियों से बांधकर उन्हें बैलगाड़ी में डाल दिया था और उसकी मां माया को तांत्रिक घसीटते हुए जंगल की ओर ले जा रहा था। माया बार-बार रोते हुए गांव वालों से बस यही पूछे जा रही थी कि आखिर मैंने किया क्या है, मेरे साथ ऐसा क्यों कर रहे हो। लेकिन उस समय मानों सभी लोग अंधे और बहरे हो चुके जिनकी आंखों और कानों में मानों जैसे कोई पर्दा पड़ चुका था। जिससे वह कुछ भी देखने और सुनने के लिए तैयार न थे। तभी वह लोग जंगल में कुछ किलोमीटर अंदर एक ऐसी जगह पहुंचते हैं जहां पेड़-पौधों का नामोनिशान तक न था। एक सूखा काला पहाड़ जो तेज धारदार और नुकीले पत्थरों से भरा हुआ था। वहां की मिट्टी काली थी। असल में वह स्थान श्मशान भूमि थी। वहां पर गांव वाले मृत लोगों का अंतिम संस्कार किया करते थे। पास ही एक छोटी सी नदी बहती थी। जो उस सूखे पहाड़ से न जाने कहां से बहते हुए आती थी। उस नदी में पानी नाममात्र का ही था जिसमें किसी इंसान के मात्र पैर ही डूब सकें लेकिन पानी इतना स्वच्छ। जिसे पिया भी जा सकता था।
इस स्थान पर गांव वालों ने पहले से ही काफी सारी लकड़ियों को एक जगह इकट्ठा किया हुआ था ताकि अचानक आवश्यकता पड़ने पर इधर-उधर भटकने की आवश्यकता न पड़े। लेकिन आज इन लकड़ियों का प्रयोग किसी मुर्दे को जलाना न था बल्कि किसी जीवित को मृत्यु की ओर झोंकना उनका मकसद था। तांत्रिक के इशारे पर गांव वाले लकड़ियों का एक ढेर लगाकर उसे जला देते हैं जिसकी भयंकर लपटे जंगल के उस भयानक अंधेरे को रोशन कर देती हैं। लेकिन यह रोशनी इस समय अंधेरे से कहीं अधिक भयानक प्रतीत जान पड़ रही थी। तभी एक शिष्य ढोलक पर थाप देने लगता है तांत्रिक जिसने एक हाथ से माया को पकड़ा हुआ था। दूसरे हाथ में चाबुक पकड़ता है और उसे अपनी पूरी ताकत से घुमाता हुआ माया की पीठ पर जड़ देता है। चाबुक की आवाज इतनी तेज थी जिससे पूरे जंगल में उसकी आवाज के साथ-साथ माया की चीख गूंज उठती है।
इन सबके पीछे जो दूर छिपी सोना जो देखने में तो मात्र 5 साल की थी लेकिन वास्तव में वह 15 वर्षीय बालिका थी, यह भयंकर दृश्य को देख रही थी लेकिन इस समय वो जानती थी कि वो कुछ नहीं कर सकती। अगर उसने बीच-बचाव करने का प्रयास किया तो वह उसका भी यह राज जान जायेंगे कि वह इतनी छोटी नहीं जितना गांववाले उसे जान रहे हैं। इसलिए वह दूर से ही यह दृश्य देखती है और बिना कोई आवाज किये आंखों में आंसू लिये ईश्वर से यही पूछती है कि आपने ऐसा क्यों किया। मेरी मां का बस यही दोष था कि उन्होंने एक कोढ़ी महिला का उपचार कर उसे ठीक किया। पूरे वर्ष उसकी सेवा की, उसके प्रति दया दिखाई और आज ये लोग मेरी मां को शैतान का पुजारी या चुड़ैल बताकर इतनी अधिक यातनाओं के साथ मार रहे हैं। इस समय सोना के दिल में अत्यधिक दर्द भी था और गुस्सा भी। गुस्सा किसके प्रति? शायद भगवान के प्रति क्योंकि उसकी मां उन्हें सर्वाधिक मानती थी और सदैव अच्छे कार्य करती थी, सबसे प्रेम करती थी और सहायता करती थी और उससे भी अधिक गुस्सा भगवान को मानने वाले उन लोगों से था जो इस समय उसकी मां को यातनायें देते हुए मार डालना चाहते थे।
जैसे-जैसे चाबुक की मार माया को पड़ती वो चित्कार करते हुए बस सभी से यही सवाल पूछती कि आखिर मैंने किया क्या है, मेरा गुनाह क्या, मुझे कोई बताओ। तभी तांत्रिक माया से कहता है कि क्या तूने उस कोढ़ी महिला का कभी न ठीक होने वाला कोढ़ ठीक नहीं किया? तभी माया कहती है, हां किया है लेकिन मैंने तो इसका डॉक्टरी.... इससे आगे वो कुछ कह पाती। तांत्रिक का चाबुक तभी दोबारा उसकी पीठ पर एक के बाद एक करके पड़ने लगता है और वो दर्द से कराह पड़ती है। तांत्रिक ऊंची आवाज में गांव वालों से कहता है - सुना गांव वालो, अब यह खुद मान गई है कि इसी ने अपने काले जादू से उस औरत को ठीक किया है। अब तुम ही बताओ इस डायन का क्या किया जाना चाहिए? सभी गांव वाले एक साथ चिल्लाने लगते हैं, इस डायन को तो जिन्दा जला देना चाहिए। तभी दूसरी ओर से एक बुढ़िया की आवाज आती है, हां-हां यह सही कह रहे हैं, इस डायन को इसी समय खत्म कर देना चाहिए। तभी तांत्रिक माया पर चाबुक से ताबड़तोड़ वार करने शुरू कर देता है, जब तक माया बेहोश नहीं हो जाती। उसके बाद वह माया को उठाकर जल्दी आग के बीच में फेंक देता है। पूरा जंगल माया की चीखों से और गांव वालों के जैकारों से गूंज उठता है।
वहीं दूसरी ओर सोना दूर छिपे यह सब बिना आंख झपकाये देखी जा रही थी। उसकी आंखों के आंसू सूख चुके थे। मानो उसका दिमाग सुन्न हो गया हो। किसी पत्थर की मूर्ति की तरह वह उस भयानक दृश्य को बस देखी जा रही थी। थोड़ी देर बाद सभी गांव वाले फौजी की रस्सियों को खोल उसे वहीं छोड़कर चले जाते हैं। पूरी रात कैसे गुजरती है, पता ही नहीं लगता, सोना तो मानो जैसे पत्थर हो चुकी थी। जो अभी तक उस जल चुकी आग के कोयलों को बिना आंखें झपकाये बस देखी ही जा रही थी। जैसे कुछ कहना चाहती हो लेकिन कहने को कुछ बचा ही न हो। उसके दिल में दुख का तूफान उमड़ रहा था और वो इसमें खुद को खत्म कर लेना चाहती थी।