तुम ही मेरा प्रेम हो,
और कोशिश कई बार की,
यह बताने को तुमको,
मगर मना कर दिया दिल ने,
और अब तलाश रहा हूँ अवसर,
कि कह सके तू ही यह,
पहल करके ऐसी,
कि अब शेष ही क्या है,
जिसको बताने में हो शर्म,
क्योंकि मालूम है सबको,
मैं समझता हूँ तुमको अपना।
सच में मानता हूँ तुमको मैं,
अपना ख्वाब और चमन,
अपनी खुशी और इज्जत,
इसीलिए सह रहा हूँ मैं,
दुनिया के ताने और सितम,
रोता हूँ तन्हाई में याद करके तुमको,
जिस प्रकार तुम रोते हो तन्हाई में,
मगर कर देना चाहता हूँ खत्म,
सारी बंदिशें- शक और दूरियां,
मैं समझता हूँ तुमको अपना।
कभी होती है नफरत भी तुमसे,
देखकर तुम्हारी हरकतें बेहूदा,
तुम्हारी नीतियां मेरे खिलाफ,
तुम्हारे कठोर शब्द सुनकर,
मुझसे दूरी बनाकर रहने पर,
मगर मैं तोड़ नहीं पाता हूँ,
तुमसे अपना रिश्ता और प्यार,
और नहीं मिला पाता हूँ मैं,
अपना हाथ किसी और से,
मैं समझता हूँ तुमको अपना।
शिक्षक एवं साहित्यकार-
गुरुदीन वर्मा उर्फ जी.आज़ाद
तहसील एवं जिला- बारां(राजस्थान)