इत्तेफाक ही कहा जाएगा कि नीति आयोग से इस्तीफा देते हुए पनगढ़िया ने भी वही कहा, जो रिज़र्व बैंक से जाते हुए रघुराम राजन ने कहा था – ‘अब मैं अपने पहले प्यार की तरफ लौटूंगा’ पहला प्यार माने एकैडमिक्स. पढ़ाई-लिखाई. रघुराम राजन शिकागो यूनिवर्सिटी गए थे, पनगढ़िया कोलंबिया यूनिवर्सिटी जाएंगे. 31 अगस्त, 2017 नीति आयोग के वाइस चेयरमैन के तौर पर उनका आखिरी दिन होगा. सुनी-सुनाई खबर ये है कि नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत से उनकी बन नहीं रही थी. लेकिन फिलहाल कुछ साफ नहीं है. जब तक साफ होता है, तब तक आप रघुराम राजन और अरविंद पनगढ़िया के बीच एक दिलचस्प तुलना पढ़िए और उस इत्तेफाक को कुरेदिए जिसकी चर्चा हमने की है. ‘दी लल्लनटॉप’ के लिए ऋषभ ने ये तुलना तब की थी, जब रिज़र्व बैंक के गवर्नर पद के लिए पनगढ़िया की दावेदारी की बातें हो रही थी. तारीख थी, 13 जुलाई 2017. प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के पॉलिसी एडवाइजर अरविन्द पनगढ़िया RBI के गवर्नर पद के सबसे बड़े दावेदार थे. रघुराम राजन के अमेरिका जाने के फैसले के बाद ‘विराट प्रश्न’ खड़ा हुआ कि कौन बनेगा अगला गवर्नर. ये प्रश्न और भी कठिन हो गया जब गवर्नर बनने की शर्तें कठिन हो गईं. रघु के मोदी सरकार से पंगे जगजाहिर हो गए थे. सरकार अब चाहती थी कि कोई पंगेबाज ना आये. साथ ही शर्त ये भी थी कि अगला गवर्नर अगर ‘रॉकस्टार’ ना हुआ, तो कम से कम ‘इकोनॉमिक्स का डॉक्टर’ तो होना ही चाहिए. मोदी सरकार के मन की ये बात अरविन्द तक आ के रुक सकती थी. अरविन्द प्लानिंग कमीशन को ख़त्म करके बने ‘नीति आयोग’ के वाइस-चेयरमैन थे और मोदी इसके चेयरमैन. तो रिश्ता पुराना था, तकरीबन डेढ़ साल पुराना. अरविन्द को ‘कैबिनेट मिनिस्टर’ की रैंक भी मिली हुई थी. आइये देखते हैं अरविन्द पनगढ़िया कैसे रघुराम राजन की जगह ले सकते थे: 1. राजस्थान के अरविन्द प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी से PhD हैं. कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रह चुके हैं. जगदीश भगवती के शिष्य हैं. जगदीश भगवती को अमर्त्य सेन का विपक्षी माना जाता है. अरविन्द ‘फ्री मार्किट’ के पक्षधर समझे जाते हैं. 2. फिर एशियन डेवलपमेंट बैंक के चीफ इकोनॉमिस्ट भी रह चुके हैं. इसके अलावा वर्ल्ड बैंक, IMF, WTO में भी काम कर चुके हैं. 3. अरविन्द को इंटरनेशनल ट्रेड का एक्सपर्ट माना जाता है. ‘मेक इन इंडिया’ के सफल होने और इंडिया के ‘एक्सपोर्ट-लेड ग्रोथ’ होने की स्थिति में ये ज्ञान बहुत ही काम आने वाला था. 4. राजस्थान सरकार के इकनोमिक एडवाइजरी काउंसिल के वाइस-चेयरमैन रह चुके हैं. मोदी के पॉलिसी एडवाइजर भी रहे थे. 1. जगदीश भगवती के साथ लिखी इनकी किताब ‘Why Growth Matters’ के बारे में The Economist ने कहा था: पॉलिसीमेकर्स और एनालिस्ट लोगों के लिए ये किताब एक मैनिफेस्टो है. 2. फिर जगदीश के साथ ही मिलकर एक और किताब लिखी: India’s Tryst with Destiny: Debunking Myths that Undermine Progress and Addressing New Challenges. इसमें ग्रोथ को लेकर ‘गुजरात मॉडल’ को खंगाला गया था. इसकी बड़ाई की गई थी. साथ ही ‘केरल मॉडल’ को भी समाज के लिए बेहतर बताया गया था. गुजरात मॉडल 2014 के लोकसभा चुनाव में बड़ा मुद्दा था. 3. 2012 में कांग्रेस सरकार ने अरविन्द को ‘पद्म-भूषण’ दिया था. 1. अरविन्द को ‘फिस्कल डेफिसिट टारगेट’ यानी ‘बजट और खर्च के बीच के अंतर के टारगेट’ से ऐतराज था. वो चाहते थे कि अंतर को फिक्स न रखा जाए. मतलब कहीं और से पैसा उठाकर भी इंफ्रास्ट्रक्चर में लगाया जाए. मोदी के चीफ इकनोमिक एडवाइजर अरविन्द सुब्रमनियन भी इससे इत्तेफाक रखते हैं. रघु को ‘सरकार के इस तरह के खर्चे’ पर ऐतराज था. 2. बैंकों के RBI से ‘उधारी’ पर इंटरेस्ट रेट को लेकर रघु और सरकार में झकझक होती थी. रघु इसको ऊपर ही रखते थे. सरकार नीचे रखना चाहती थी. अरविन्द का भी तर्क था कि नीचे ही रहना चाहिए. 3. इन्फ्लेशन को लेकर भी अरविन्द सरकार से सहमत थे. रघु RBI की Monetary Policy को इन्फ्लेशन पर टारगेट करते थे. अरविन्द का कहना था कि इन्फ्लेशन को सिर्फ इससे नहीं कंट्रोल किया जा सकता है. 4. अरविन्द को ‘सरकार का आदमी’ माना जाता है. राजस्थान यूनिवर्सिटी में इनका एक लेक्चर था: The Economy at Two Years under Prime Minister Narendra Modi. इसमें अरविन्द ने कांग्रेस की यूपीए सरकार की पॉलिसी को बहुत लताड़ा था और मोदी सरकार की बड़ाई की थी. 5. इसके अलावा अरविन्द मोदी सरकार की इकॉनोमिक पॉलिसी पर ही फोकस रखते हैं. रघु ने कई जगह अपने लेक्चर में सोशल और पॉलिटिकल बातों पर भी कमेंट किए थे. ये सरकार को गवारा नहीं था. 1. अरविन्द ‘पब्लिक सेक्टर में डिसइन्वेस्टमेंट’ से सहमत नहीं थे. उनका कहना था कि इनको ज्यादा प्रोफेशनल बनाकर प्रॉफिट निकाला जा सकता है. ऐसा ही कुछ नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के पब्लिक सेक्टर में किया था. 2. बैंकों को लेकर इनके क्रांतिकारी विचार थे. उनका कहना था कि पहले तो बैंकों में कैपिटल डाला जाए. फिर थोड़ा शेयर किसी कंपनी को दिया जाए, जिससे मार्किट से पैसा उठाने में आसानी हो. और फ्यूचर में Privatisation की ओर सोचा जाए. मतलब सरकार बैंकिंग से अपने हाथ खींच ले. इंदिरा गांधी के 1969 वाले डिसीजन के बिलकुल उलट. 3. इसके अलावा सब्सिडी को लेकर भी अरविन्द गंभीर थे. उनका मानना था कि जो सब्सिडी गरीब लोगों तक नहीं पहुंच रही, उसे ख़त्म कर देना चाहिए. साभार:लल्लनटॉप
शानदार करियर, रघु से कतई कम नहीं
किताबें भी लिखीं, अवॉर्ड भी पाए
‘मोदी सरकार’ के ‘मन की बात’ समझते थे
अब अरविन्द पनगढ़िया के मन की बात