पिछले दिनों गोरखपुर के डॉक्टर कफ़ील के साथ जो कुछ भी हुआ, वो बहुत दिलचस्प था. ऑक्सीजन की कमी से जब सरकारी अस्पताल के बच्चे मर रहे थे, तो एक लॉबी के लिए डॉक्टर कफ़ील हीरो बन कर उभरे. और दूसरी लॉबी ने उनको विलेन बना दिया.
लोग कह रहे हैं कि जिन दूसरे गुट के लोगों ने उन्हें विलेन बनाया है, वो एक ख़ास पक्षपात भरे रवैय्ये की वजह से किया है. जबकि वो ये भूल रहे हैं कि इतने बच्चों की मौत के बीच डॉक्टर कफ़ील को एक हीरो की तरह पेश करना भी उसी मानसिकता को दर्शाता है. क्या ज़रूरत थी उन्हें हीरो बनाने की ऐसे ग़म भरे माहौल में? और भी डॉक्टर तो लगे रहे होंगे बच्चों को बचाने के कार्य में?
साख का संकट
मुस्लिम सम्प्रदाय इस समय जूझ रहा है अपनी अच्छी बातों को लोगों के सामने लाने के लिए. अपना और अपने धर्म का एक अच्छा चेहरा लोगों के सामने पेश करने के लिए. इस वक़्त दुनिया में जितना बदनाम इस्लाम और मुसलमान है, उतना शायद ही कोई और हो. इस धर्म के अच्छे लोगों की तड़प और झुंझलाहट बिलकुल साफ़ समझ आती है. क्योंकि यदि हम और आप, या बहुसंख्यक मुसलमान कहीं बम न फोड़ रहे हो और उसके बाद भी हमे शक की निगाह से देखा जाए और हर आतंकवादी घटना के लिए हमें घूरा जाए तो ये बात भीतर तक तकलीफ़ देती है. आम मुसलमान लोगों से ये उम्मीद कर रहा है कि हर मुसलमान को शक की नज़र से न देखा जाए और उसे एक आम इंसान की तरह ही समझा जाए.
ये तड़प अच्छी है. ये होनी भी चाहिए मगर क्या सिर्फ ये तड़प ही काफ़ी है जो मुसलमानों को अच्छा साबित कर देगी? क्या डॉक्टर कफ़ील को हीरो की तरह पेश कर देने से लोग सारे मुसलमानों को हीरो की तरह देखने लगेंगे? क्या इस घटना से लोग ये मान बैठेंगे कि सारे मुसलमान ऐसे ही मानवता के कार्य करते हैं?
डॉक्टर कफ़ील हीरो बने, ठीक है, मगर जब एक वर्ग उन्हें खलनायक बनाने पर उतर आया, तो दूसरा वर्ग जो उन्हें हीरो बना रहा था वो आक्रामक हो गया. फिर जिस बात का डर था वही हुआ. जिस आक्रामकता से उन्हें हीरो बनाया गया था, उसी आक्रामकता से उन्हें जीरो साबित कर दिया गया. ये होना ही था क्योंकि जिस माहौल में ऐसी आक्रामकता दिखाई जा रही है, वहां उसका प्रतिरोध आक्रामक ही होगा. अब हर तरफ आक्रामक लोग ही बैठे हैं.
हीरो सिर्फ हीरो होता है, हिंदू मुसलमान नहीं
मेरे हिसाब से ये वक़्त ऐसा नहीं है, जहां किसी एक इंसान को उठा कर उसे मुसलमान हीरो की तरह पेश किया जाए. क्योंकि यदि आप ऐसा करते हैं, तो इस समय आपको और आपके समाज को उस से सिर्फ नुक़सान ही होगा, फायदा नहीं. मुस्लिम समाज को हीरो की ज़रूरत नहीं है. यहां तक कि किसी भी समाज को अपने आपको अच्छा, शांतिप्रिय, मानवतावादी साबित करने के लिए अपने यहां के लोगों को हीरो नहीं साबित करना होता है.
ऐसा नहीं है कि मानवतावादी मुस्लिम समाज में नहीं पाए जाते हैं. मुस्लिम समाज के लोग बिलकुल मानवतावादी होते हैं. हज़ारों और लाखों बैठे हैं जो बिना किसी भेदभाव के लोगों की मदद करते हैं. मगर ये सिर्फ मुस्लिम समाज तक ही तो सीमित नहीं है! हर समाज के लोग, हर धर्म के लोग मानवतावादी होते हैं. किसी भी अन्य धर्म और समाज को ये साबित करने की ज़रूरत नहीं होती कि उनके भीतर मानवता और शांति भरी हुई है. और अगर आपको और हमको ये साबित करने की ज़रूरत पड़ रही है, तो इसका मतलब ये है कि आप उसे ऐसे साबित नहीं कर पाएंगे. बल्कि उसे साबित करने के लिए समाज के बहुत भीतर से ऐसे काम करने पड़ेंगे.
हज़ारों हिंदू डॉक्टर रोज़ न जाने कितनों की जान बचाते हैं, हजारों अंग्रेज़, फ्रेंच, जर्मन, कैनेडियन लोगों ने न जाने कितने मानवतावादी आविष्कार किए. या यूं कहें कि हमारे आधुनिक समाज की नींव रखी. मगर इनके धर्म, इनके समाज को कभी ये साबित करने की कोशिश नहीं करनी पड़ती कि हमारा फ़लाना हीरो कितना बड़ा मानवतावादी है. क्योंकि इनके समाज में इंसानियत को लेकर ऐसी कोई मूलभूत गड़बड़ी अभी हुई नहीं है. मुसलमान डॉक्टर भी हैं, हज़ारों की तादात में लोगों की जान भी बचाते हैं. मगर जब अपने समाज को मानवतावादी सिद्ध करने के लिए मुसलमानों को उनके प्रोफेशनल कार्यों का बखान करना पड़े, तो समझिए कि कहीं कुछ ऐसी साख है, जो इस समाज ने खो दी है.
पड़ोसी मुल्क में तो और भी किल्लत है ऐसे हीरोज़ की
पाकिस्तान में एक अब्दुल सत्तार इधी हुए. जब भी पाकिस्तान में मानवता पसंद करने वाले लोगों की बात आती है, पूरे पाकिस्तान को सिर्फ़ उन्ही का सहारा लेना पड़ता है. भले उनके जीते जी उन पर फतवे लगाए हो और उन्हें काफ़िर कहा गया हो. पाकिस्तान ने धर्म के नाम पर सब कुछ कर डाला, मगर मानवता के नाम पर सत्तर सालों में बस एक अब्दुल सत्तार पैदा किया.
इसलिए अभी भारत के और लगभग सारी दुनिया के मुस्लिम समाज को न तो किसी इंसानियत के हीरो कफ़ील की ज़रूरत है और न अपनी शांति का डंका पीटने की ज़रूरत है. ये डंका पीटना उन लोगों को भी सुधरने का मौक़ा नहीं देगा जो अब धर्मांधता से इंसानियत की ओर पहला क़दम रख चुके हैं. अगर हम ये बता देंगे कि तुम्हारा डॉक्टर होना और लोगों की जान बचाना ही तुम्हारे इंसान होने के लिए काफ़ी है, तो ये मामला सुधर चुका.
शो ऑफ़ नहीं, नम्रता आपको इज्ज़त दिलाती है
इंसानियत का पैमाना बहुत भीतरी और बहुत गहरा होता है. जिसका सबसे पहला उसूल होता है सभी को अपने बराबर समझना. किसी के धर्म और जाति की वजह से कोई भेद नहीं, बल्कि सबको अपने समान समझना.
इसे समझिए कि कहीं कुछ गड़बड़ है, जिसके लिए आपको ऐसे दुख भरे माहौल में अपने यहां के ऐसे लोगों का उदाहरण देना पड़ता है. और बताना पड़ता है कि देखो मुसलमान होने के बावजूद इसने कितनी महानता का काम किया. ये कहीं न कहीं आपके स्वयं के संशय को दिखाता है. हमें नम्र होने की ज़रूरत है. और कोई भी नम्र समाज इस तरह आक्रामक होकर अपने लोगों को हीरो नहीं बनाता है. और जो दूसरे लोग आपके साथ मिलकर इसे आक्रामक रूप से प्रचारित कर रहे हैं, वो सत्ता विरोध में आपका इस्तेमाल कर रहे हैं. ये आपके समाज के लिए घातक होगा.
नम्र बने रहिए. डॉक्टर कफ़ील को कोई हीरो बताए तो उस से कहिए कि ‘अरे कहां का हीरो! डॉक्टर द्वारा लोगों की जान बचाने में कैसी हीरोगिरी?’
खुद डॉक्टर कफ़ील ने एक बयान में कहा था कि मैं पहले इंडियन हूं और जो मैंने किया वो एक डॉक्टर होने के नाते मेरा फ़र्ज़ था.