ट्रिपल तलाक़ पर आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला उम्दा है. अब सरकार को चाहिए कि वो कानून बनाने की दिशा में काम करें. इसी बीच भारत की विवाह संस्था के बारे में मुझे कुछ कहना है. इसकी कुछ घातक खामियों पर ध्यान देना भी उतना ही ज़रूरी है.
डिस्क्लेमर
हो सकता है यह लेख पढ़कर हम भारतीयों के संस्कारी मन को ज़बरदस्त चोट पहुंचे. हो सकता है सभ्यता के ध्वजवाहक ‘गुच्छा’ हो जाएं. हो सकता है इस नाचीज़ को उथली मानसिकता वाला संस्कार-विहीन व्यक्ति कहा जाए. लेकिन अब लिख दिया है तो लिख दिया है. आहत प्रदेश के वासी अपने रिस्क पर पढ़ें.
शादी नहीं एलआईसी
भारत में अजूबा है शादी का सिस्टम. बल्कि क्रूर सिस्टम है. शादी अगर क्लिक कर जाए तो स्वर्ग है. वरना फिर ढोनी पड़ती है एक लंबी दिमागी परेशानी और अधमरी सी जिंदगी.
‘फैमिली वैल्यूज’ की परिभाषाएं रटी बैठी सोसाइटी में तलाक बहुत बड़ी चीज़ है. लगभग गुनाह है.
‘शादी जन्म जन्म का बंधन है’ के विचार ने कितनों को झेलते रहने पर मजबूर किया, ये किसी सर्वे में आपको पता नहीं लगेगा. बिटिया विदा होती है तो पहली नसीहत यही मिलती है कि बेटा अब ससुराल ही तेरा स्थायी घर है. ‘डोली में जा रही हो, अर्थी में ही लौटना’. शब्द ये नहीं होते, पर भाव यही होता है. यही समझाया जाता है कि बच्चे ये जिस खूंटे से तुझे बांधा जा रहा है ना, उसे तोड़ ने की हिमाकत ना करियो.
परखने के लिए बरतना ज़रूरी है
शादी – चाहे जैसी हो, लव, अरेंज, लव कम अरेंज – होती जुआ ही है. दो लोग तब तक एक दूसरे को ठीक से डिस्कवर नहीं कर पाते, जब तक साथ रहना शुरू नहीं कर देते. भले ही फिर आप प्यार-मुहब्बत के रास्ते से एंट्री लेकर एक हुए हो. जुए की ये बाजी उल्टी पड़ने की संभावना हर समय होती है. इसमें कुछ असामान्य भी नहीं.
दिक्कत इस तथ्य में है कि आप बाजी खेल ने के इच्छुक हो या ना हो आपको गेम छोड़ने की लगभग मनाही है. खेलते ही जाना है. या तो निरंतर खेलते हुए अपने सपने, अपनी ख्वाहिशें, अपना वजूद दांव पर लगा कर हारते जाओ. या फिर पत्ते उछालकर बाहर आने की हिम्मत दिखाने जैसा कारनामा कर दिखाओ. जिसका खामियाज़ा आपको संस्कारवादी समाज में अलग थलग पड़ जाने के रूप में भुगतना पड़ता है. ख़ास तौर से तब जब आप एक स्त्री हो.
मर्द के तलाक लेने और औरत के तलाक लेने में ज़मीन-आसमान का फ़र्क
तलाकशुदा स्त्री इस समाज में पाया जाने वाला वो दुर्लभ जीव है, जिस पर मुसीबतों की चौतरफा मार पड़ती है. हर कोई उसे जलेबी समझकर खा जाना चाहता है लेकिन हाथ थामने वाला ढूंढे नहीं मिलता. डिवोर्स ले चुके पुरुषों से शादी की इच्छुक लड़कियों की लंबी कतारें भी मिल जाती हैं, लेकिन एक तलाकशुदा महिला के लिए ये दृश्य लगभग असंभव ही है.
मेहरबानी कर के मुझे एलीट क्लास के उदाहरण ना दीजिये और ना ही दो चार अपवाद मेरे सर पे पटकिए. समाज का मूल्यांकन अपवादों के सहारे नहीं, बल्कि बहुसंख्य जनता की विचारधारा के आधार पर हुआ करता है. और यकीन जानिये इस मुहाज़ पर हम भारतीय लोग एक असामान्य रूप से क्रूर समाज है. जो एक ज़िंदा वजूद के चलती फिरती लाश में तब्दील हो जाने जैसी घटना को गुनाह मानने तक को राजी नहीं. उसका नोटिस तक नहीं लेना चाहता.
समझौता एक्सप्रेस
समझौता. इस शब्द ने इतनी ज़्यादा जिंदगियां बरबाद की है कि बरसों धोते रहने के बाद भी इसकी कालिख़ हम लोगों के दामन पर से मिट पाना मुश्किल है. चाहे जो हो बस रिश्ता बचाओ. समझौता करो. पति शराबी है, मारता है, शक करता है, कमाता नहीं, नालायक है, निखट्टू है, हज़ार ऐब हैं, रामबाण उपाय सिर्फ एक. समझौता. अपने लिए नहीं तो बच्चों के लिए. उनके लिए नहीं तो उस बाप की खातिर जो लड़की को फिर से ब्याहने के नाम से ही कांप उठता है. उस मां के लिए जो बेटी पर तलाकशुदा का लेबल लगा देख कर घुट घुट के मर जाएगी.
बस झोंके रखो खुद को ऐसे नर्क में जहां सांस लेना भी मुहाल हो. एक वक्त ऐसा आता है कि औरत भयानक रूप से इस ज़िंदगी की आदी हो जाती है. जैसे शरीर किसी बीमारी के आगे हथियार डाल कर उसे अपना हिस्सा बना लेता है, उसी तरह एक असहनीय ज़िंदगी को बुद्ध की सी शांति से जीती औरतों की इस देश में भरमार है.
और हम इस तथ्य से आंखें मूंदे पड़ें अपनी महान सांस्कृतिक विरासत पर, अपने पारंपारिक मूल्यों की निरर्थक महानता पर इतराते फिरते हैं. हैं न कमाल??
एक बुरी शादी मर्दों के लिए भी जहन्नुम का तजुर्बा है
ऐसा नहीं है कि एक बुरी शादी सिर्फ महिलाओं की ज़िंदगी ही नर्क बनाये रखती है. कई बार इसकी चपेट में पुरुषों की जिंदगी भी झंड हो जाती है. वो भी चाहते हैं आज़ाद होना, लेकिन बच्चे, समाज जैसे अड़ंगे उनके सामने भी होते हैं.
ये छोड़िए एक ऐसा केस मैं पर्सनली जानता हूं, जिसमें लड़का सिर्फ इसलिए तलाक नहीं ले रहा, क्यों कि वो ज़िंदगी भर अपराधबोध से ग्रस्त नहीं रहना चाहता. उसे इस समाज पर भरोसा नहीं. वो नहीं चाहता कि तलाकशुदा का लेबल लगी उसकी पत्नी उस ज़हर का शिकार बने, जो इस समाज की नस-नस में घुला हुआ है. एक गिल्ट कॉम्पलेक्स से डर कर समझौता एक्सप्रेस पर सवार है बंदा.
ये भी एक पहलू है जो उतना ही डरावना है. ऐसा सिस्टम डेवलप ही नहीं कर पाएं हैं हम, जहां शादी से अलग होना एक सामान्य घटना हो महज़. ज़िंदगी उथल-पुथल करने वाला हादसा नहीं.
विदेशों में अलग होना आसान है, इसीलिए जीवन भी आसान
पश्चिमी सभ्यता को दिन में छत्तीस बार कोसने वाले हम लोग असल में बौने हैं उनके आगे. उनके यहां कई-कई बार होने वाली शादियां और डिवोर्स का मजाक उड़ाते हम, ये भूल जाते हैं कि, वही चीज इस बात का द्योतक है कि वो कितना समंजस और सहज समाज है. एक नई ज़िंदगी का आगाज़ जीवन के किसी भी मोड़ पर किया जा सकता है और इसे करने की आज़ादी हर एक को होनी चाहिए, इतनी बेसिक समझ उनकी रोजमर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा है.
तभी वहां दूसरी, तीसरी, चौथी शादी आम बात है. हमारे हाथ एक इन्द्राणी मुखर्जी लगती है, तो हम निर्ममता से उस पर टूट पड़ते हैं. जरा थम के अपने आप से कभी क्या ये पूछ पाएंगे हम कि क्या पारिवारिक मूल्यों का इतना दुराग्रह उचित है? कि दो ज़िंदा वजूदों को सिसक सिसक कर जीने के लिए छोड़ दिया जाए?
भारत में, ख़ास कर हिंदू धर्म में तलाक का जटिल सिस्टम
हमारे यहां तलाक लेने की प्रोसेस सामाजिक रूप से कठिन है ही, कानूनी रूप से भी जटिल है. कोर्ट में म्यूचुअल कंसेंट से होने वाला तलाक भी कम से कम 6 महीने का समय मांगता है. फर्स्ट मोशन के साथ सेकेंड मोशन कबूल ही नहीं की जाती. पति पत्नी को 6 महीने का समय दिया जाता है कि शायद रिश्ता कुछ सुधरे. कुल मिलाकर साथ रहने पर ज़ोर है. भले ही एक पल साथ खड़े रहना भी दुश्वार हो. पता नहीं मूल्यों के नाम पर इस बेमिसाल नाइंसाफी का बोझ हम लोग महसूस क्यों नहीं करते?
जब तक स्त्री के कुंवारेपन से, उसकी वर्जिनिटी से उसके वजूद का मूल्यांकन किया जाता रहेगा, तलाकशुदा औरत को यूज्ड चीज मानने की विकृत मानसिकता अवचेतन मन में घर किए रहेगी, तब तक एक आज़ाद समाज का निर्माण दूर का सपना है. ऐसा समाज जहां खुद की राह चुनने की स्वतंत्रता हो और फेल हो जाने की लिबर्टी भी.
आप भले ही मुझे कोसिए, अपनी महानतम संस्कृति के दृष्टान्त मेरे मुंह पर फेंक मारिए, लेकिन मेरे इस सवाल का जवाब जरूर ढूंढ लाइए कि तमाम विपरीत हालात में शादी का सलीब ढोने वाली बेबस आत्माओं के ख़्वाबों को कुचल कर, क्या कभी हम शर्मसार भी होंगे? क्या बन पाएगा हमसे ऐसा समाज, जो चुनने की आज़ादी को मौलिक अधिकार का रूप प्रदान करेगा? क्या बदलेगा कभी हमारा नज़रिया?
चलिए छोड़िए. करवा-चौथ तो मनाते होंगे न आप! मनाते ही होंगे. बाज़ार ने इसे ‘कूल’ जो बना दिया है. तो अबकी बार जब आप छलनी के इस ओर खड़े हो, तब गौर कीजिएगा उन चेहरों पर. जो परंपरा, संस्कृति और सभ्यता का बोझ ढोते-ढोते इतने थक चुके हैं कि उनकी तमाम चमक-दमक भी उनकी आंखों में रची-बसी उस मनहूसियत को नहीं छिपा पाती है, जो हमारे महान मूल्यों ने उन्हें बख़्शी है. मुझे तो सिहरन होती है इस पर. आपको?
और हां, ऐसी शक्ल छलनी के दोनों तरफ हो सकती है. प्रतिशत कम-ज़्यादा होगा लेकिन दंश एकसमान होता है. सारी शादियां, या विवाह-सिस्टम को खारिज नहीं किया जा रहा, लेकिन जो शादी जैसी सो कॉल्ड उदात्त व्यवस्था के शिकार हैं, उनका ज़िक्र कहीं तो हो, कभी तो हो!