एशिया का सबसे लंबा रेल नेटवर्क होने का दावा करने वाली भारतीय रेलवे इन दिनों मुश्किलों में है. आए दिन हो रहे बड़े हादसों ने भारतीय रेल और उसके काम करने के तरीकों पर सवालिया निशान खड़े कर दिए हैं. हकीकत ये है कि डिजिटल युग में भी भारतीय रेलवे कई जगह उन पुरानी तकनीकों का इस्तेमाल कर रही है, जिसे हमसे छोटे देशों ने भी 20-25 साल पहले ही रिजेक्ट कर दिया था. हमारी रेल व्यवस्था में पिछले 20 साल से तकनीक के मामले में कोई खास सुधार नहीं हुआ है. हर साल बजट में बुलेट ट्रेन के सपने तो होते हैं, मगर आए दिन होने वाले रेल हादसों से वर्तमान रेल नेटवर्क का पिछड़ापन सामने आ जाता है. एक नजर उन खामियों पर जिन्हें इंडियन रेलवे में लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है-
तकनीक के मामले में बेहद पीछे
भारत में हर रोज 1,15,000 किलोमीटर रेलवे ट्रैक पर 19 हजार से अधिक रेलगाड़ियां दौड़ती हैं, जिनमें 2.5 करोड़ लोग हर रोज यात्रा करते हैं. इस रेलवे नेटवर्क में 13 लाख कर्मचारी काम करते हैं, जिनके ऊपर 17 रेल मंडलों के 7172 स्टेशनों पर गुजरने वाली 7910 रेल इंजनों को चलाने का भार है. भारतीय रेलवे 163 साल पुरानी है और बढ़ते हुए शहरीकरण का भार रेलवे पर भी पड़ा है. लेकिन रेलवे जरूरत के हिसाब से खुद को ढालने में नाकाम रहा है. हमारे पास जो एलएचबी कोच, रोलिंग स्टॉक, एयर ब्रेक सिस्टम, मॉडर्न कंक्रीट स्लीपर, लॉन्ग वेल्डेड रेल, मॉडर्न लोको इंजन, मॉडर्न रूट रिले इंटरलॉकिंग, सेंट्रल रिले इंटरलॉकिंग, ट्रैक सिग्नलिंग सिस्टम, पैनल इंटर लॉकिंग जैसी तकनीक है, वो करीब 25 साल पुरानी है. सड़कों पर दौड़ने वाली गाड़ियां जहां सबसे आधुनिक तकनीक बीएस-4 का इस्तेमाल कर रहीं हैं, वहीं रेलवे अब भी इन्हीं तकनीकों के सहारे चल रही है. खुद रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने पिछले साल बजट के दौरान कहा था कि भारतीय रेलवे के आधुनिकीकरण के लिए 140 अरब डॉलर की जरूरत है.
ट्रेनों को भिड़ने से रोकने की टेक्नॉलजी
भारत में जब भी ट्रेन हादसा होता है, तो हर बार यूरोपियन ट्रेन कंट्रोल सिस्टम की तर्ज पर सिक्योरिटी सिस्टम लागू करने की बात होती है. यूरोपियन ट्रेन कंट्रोल सिस्टम यूरोपीयन रेल ट्रैफिक मैनेजमेंट सिस्टम का हिस्सा है. यह ट्रेन कंट्रोल सिस्टम लगातार हर ट्रेन की अधिकतम गति और हर ट्रेन के सिग्नल पर निगाह रखता है. इसके अलावा ट्रेनों की टक्कर रोकने के लिए ट्रेन कॉलीजन अवॉइडेंस सिस्टम (टीसीएएस) लागू करना होगा. रेलवे अधिकारियों के मुताबिक टीटीएएस का खर्च एक किलोमीटर पर 10-12 लाख रुपए है, जिसे पूरे देश में लागू करने के लिए करीब साढ़े छह हजार करोड़ रुपए चाहिए. यह सिस्टम तीन किलोमीटर पहले से ही सिग्नल को रीड कर लेता है और चालक को सिग्नल की लोकेशन बता देता है. ये सिस्टम ड्राइवर को मॉनीटर पर जानकारी उपलब्ध करवाता है. इससे एक ही ट्रैक पर चलने वाली दूसरी ट्रेन की जानकारी मिल जाती है, जिससे ड्राइवर अपनी ट्रेन की स्पीड घटा या बढ़ा सकता है. अगर किसी तरह से ड्राइवर सिग्नल को जंप भी कर देता है, तो स्टेशन मास्टर भी ट्रेन रोक सकता है. रेडियो के जरिए भी आपस में बातचीत की जा सकती है. भारत में अब भी इस सिस्टम का परीक्षण किया जा रहा है.
एलएचबी कोच समय की मांग
ज्यादातर भारतीय ट्रेनों में कन्वेन्शनल कोच इस्तेमाल किए जाते हैं. हादसे की स्थिति में इन कोचों की कपलिंग (जिससे एक कोच दूसरे से जुड़े होते हैं) टूट जाती है और कोच या तो पटरी से उतर जाते हैं या फिर टकराकर एक दूसरे के ऊपर चढ़ जाते हैं. ऐसे में मरने वालों की संख्या बढ़ जाती है. इससे बचने के लिए रेलवे ने लिंक हॉफमैन बुश कोच (एलएचबी) का इस्तेमाल शुरू कर दिया है. हालांकि अब भी ये सभी ट्रेनों में नहीं लगाए जा सके हैं. रेल मंत्रालय के एक अधिकारी के मुताबिक 2016-17 में 1697 एलएचबी कोच बनाए गए थे. 2017-18 के लिए 2384 और 2018-19 के लिए 3025 एलएचबी कोच बनाने का टार्गेट रखा गया है.
पुरानी पड़ चुकी हैं पटरियां
रेलवे ने 2015 में अपने एक मूल्यांकन में बताया था कि 4,500 किलोमीटर रेलवे ट्रैक को ठीक करने की जरूरत है. लेकिन पैसे की कमी के कारण यह पूरा नहीं हो पा रहा है. इसके अलावा जाड़े के दिनों में पटरियों के सिकुड़ने और गर्मी के दिनों में पटरियों के फैलने से हो रहे हादसों को रोकना अब भी चुनौती बना हुआ है. बीबीसी के मुताबिक भारतीय रेलवे ने अपनी इंटरनल रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया था और बताया था कि जाड़े के दिनों में रेलवे पटरियों के लिए विंटर पेट्रोलिंग करता है. जहां भी कमी नजर आती है, उसे दुरुस्त किया जाता है.
सिग्नल सिस्टम में बदलाव जरूरी
भारत में रूट रिले इंटरलॉकिंग (आरआरआई) के जरिए ट्रेनों का परिचालन होता है. आरआरआई पैनल यानी रेलवे स्टेशन पर स्थित ऐसा रूम होता है, जिसमें हजारों सर्किट और सैकड़ों केबिल के जरिए सिग्नल व्यवस्था चलाई जाती है. ट्रेनों का संचालन पूरी तरह इसी पर आधारित है. इसमें खराबी आने पर ठीक करने में घंटों से लेकर कई दिन लग जाते हैं और ट्रेनों का संचालन मैनुअली करना पड़ता है, जिससे हादसे की आशंका बनी रहती है. इससे बचने के लिए ऑप्टिकल फाइबर केबल बेस्ड बैकअप सिग्नलिंग सिस्टम लगाए जाने का प्रस्ताव है, जिससे थोड़ी ही देर में सिग्नल सिस्टम ठीक हो जाएगा. अभी यह ओएफसी बेस्ड बैकअप सिग्नलिंग सिस्टम का ट्रायल भोपाल के निशातपुरा में चल रहा है.
ताकि न पड़े मौसम की मार
हर साल जाड़े के दिनों में रेलवे को कोहरे का सामना करना पड़ता है. लगभग दो महीनों तक कोहरे की वजह से रेल कुछ घंटों से लेकर एक-दो दिन की देर से चलने लगती हैं. इससे निजात पाने के लिए रेलवे ने त्रि-नेत्र टेक्नॉलजी का ट्रायल किया है. आने वाले दिनों में रेलवे इसे 3,000 इंजनों में इंस्टॉल करने जा रहा है. एक त्रि-नेत्र डिवाइस की लागत करीब एक करोड़ रुपए बताई जा रही है. इस सिस्टम में दो हाई रिजॉल्यूशन ऑप्टिकल वीडियो कैमरा, हाई सेंसेटिव इन्फ्रारेड वीडियो कैमरा और रडार बेस सिस्टम होगा. ये सभी मिलकर एक मिला-जुला वीडियो तैयार करेंगे, जो लोको पायलट के सामने की स्क्रीन पर चलता रहेगा. इससे ड्राइवर को आगे आने वाले इलाके की भी रियल तस्वीरें दिखती रहेंगी. एक बार सिस्टम के लगने के बाद ड्राइवर खराब मौसम जैसे कोहरा, धुंध, भारी बारिश और रात में भी आराम से देख सकेगा.
जान जोखिम में डालती क्रॉसिंग्स
1 लाख 15 हजार किलोमीटर के रेलवे ट्रैक में अब भी 10 हजार से अधिक मानव रहित रेलवे क्रॉसिंग हैं, जिन पर आए दिन हादसे होते रहते हैं. रेल मंत्रालय ने इसके लिए 3,900 करोड़ रुपये रखे हैं और इसके लिए 2019 का वक्त तय किया है. 2017 में 1440, 2018 में 2286 और 2019 में 2387 मानव रहित रेलवे क्रॉसिंग को बंद करके, उन पर गार्ड तैनात करके या फिर उनके ऊपर फुटओवर ब्रिज या अंडर पास बना के उन्हें खत्म किया जाएगा. रेलवे ने 2012 में एक रिपोर्ट दी थी, जिसमें कहा गया था कि मानव रहित रेलवे क्रॉसिंग पर हुए हादसों में हर साल 1500 लोगों की मौत हो जाती है.
रफ्तार में इतने पीछे हैं कि पूछिए ही मत
भारत में अभी तक सबसे तेज चलने वाली ट्रेन गतिमान एक्सप्रेस है, जो दिल्ली से आगरा के बीच चलती है. इसकी रफ्तार 160 किलोमीटर प्रति घंटा है. वहीं मुंबई-दिल्ली राजधानी एक्सप्रेस और भोपाल-दिल्ली शताब्दी एक्सप्रेस की औसत रफ्तार 90-100 किलोमीटर/घंटा है. वहीं अपने पड़ोसी देश चीन को देखें तो उसके पास 300 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलने वाली बुलेट ट्रेन है, जिसका नेटवर्क 20 हजार किलोमीटर है. 1990 के आस-पास चीन में रेलगाड़ियों की औसत रफ्तार 30-40 किलोमीटर प्रति घंटा ही थी, लेकिन निवेश के जरिए आज वो उस मुकाम पर खड़ा है, जहां पहुंचने के लिए भारत सपना देख रहा है. वहीं जर्मनी जैसे देश में 1960-70 के दशक में तेज रफ्तार ट्रेनों का कंसेप्ट तैयार हुआ, जिसने देखते ही देखते 200 और 300 किलोमीटर की गति पकड़नी शुरू कर दी. इसके डिब्बे दुनिया भर के, यहां तक कि भारतीय रेल में भी लगा करते हैं. भारत में स्पेन से आई टेल्गो ट्रेन का ट्रायल हो चुका है, लेकिन अभी इसे शुरू नहीं किया जा सका है.
नए ट्रैक बिछाने की धीमी रफ्तार
भारत में नए रेलवे ट्रैक बिछाने की रफ्तार बेहद कम है. अभी हाल ही में रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने एक सेमिनार में बताया था कि भारत ने इस साल हर रोज 9.6 किलोमीटर रेल लाइन बिछाना तय किया है, जिससे 2017-18 में 3500 किमी रेल लाइन बिछाई जा सके. 2016-17 के दौरान भारतीय रेलवे ने 7.8 किलोमीटर प्रति दिन की दर से 2855 किलोमीटर की नई ब्रॉड गेज लाइन चालू की है. रेलवे ने 2018-19 में 15 किलोमीटर और 2019-20 में 20 किलोमीटर प्रतिदिन रेलवे लाइन बिछाने का लक्ष्य रखा है. चीन से तुलना करें तो चीन ने 2008-09 में बुलेट ट्रेन चलाने के लिए रेल लाइन बिछानी शुरू की थी, जो अब 20,000 किलोमीटर तक पहुंच गई है और हर रोज वहां काम चल रहा है.
खाली पड़े हैं ढाई लाख पद
फिलहाल रेलवे में ढाई लाख से ज्यादा पद खाली पड़े हैं. इनमें अकेले सुरक्षा का कामकाज देखने वाले कर्मचारियों के ही 1 लाख 27 हजार पद खाली हैं. इसकी वजह से बाकी कर्मचारियों पर काम का दबाव ज्यादा है, जिससे रेल हादसे बढ़े हैं. रेलवे अधिकारियों के मुताबिक अगले एक साल में एक लाख पदों को भरने की तैयारी है, जिनमें 65 हजार पदों को भरने का जिम्मा आरआरसी और 35 हजार पदों को भरने का जिम्मा आरआरबी को दिया जा सकता है. इसके अलावा इस साल के अंत तक लगभग 46 हजार कर्मचारी रिटायर हो रहे हैं, जिसकी वजह से रेलवे पर दबाव और भी बढ़ने वाला है.
तय करनी होगी जिम्मेदारी
जब भी भारतीय रेलवे किसी हादसे का शिकार होती है, तुरंत ही एक उच्चस्तरीय जांच बिठा दी जाती है और मामले की जांच किसी रेल संरक्षा आयुक्त को सौंप दी जाती है. मामले की जांच चलती रहती है और कार्रवाई के नाम पर कुछ छोटे अधिकारी नाप दिए जाते हैं, लेकिन असली जिम्मेदारी लेने को कोई भी तैयार नहीं होता है. 1956 में जब तमिलनाडु के अरियालुर में ट्रेन हादसा हुआ था, तो उसकी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए तत्कालीन रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इस्तीफा दे दिया था. वो एक नजीर थी, लेकिन उसके बाद लगातार हादसे होते रहे और मंत्रियों को तो छोड़िए, रेलवे के अधिकारी और कर्मचारी भी जवाबदेही से बचते ही रहे.
ठंडे बस्ते में पड़ी हैं काकोदकर समिति की सिफारिशें
रेल मंत्रालय ने 16 सितंबर, 2011 को परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व प्रमुख डॉ. अनिल काकोदकर की अध्यक्षता में एक समिति बनाई थी. इस समिति ने 17 फरवरी 2012 को अपनी रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें 106 सिफारिशें की गई थीं. आयोग के अध्यक्ष अनिल काकोदकर थे और मेट्रो मैन कहे जाने वाले डॉ. ई.श्रीधरन समिति के सलाहकार थे. इस समिति ने रेल सुरक्षा में सुधार संबंधी कई सुझाव दिए थे, जिनमें सबसे खास था कि रेल सुरक्षा के क्षेत्र में अगले पांच साल में सुरक्षा क्षेत्र पर एक लाख करोड़ रुपए की जरूरत होगी. इसके अलावा सामान्य सुरक्षा मानक, संचालन ढांचा, खाली पड़े पद, सुरक्षा मानकों की कमी और भारतीय रेल में सुरक्षा ढांचे से जुड़ी सिफारिशें शामिल थीं. इनमें से कई सिफारिशें अब भी लागू नहीं हो सकी हैं. जून महीने में ही मिनिस्टर ऑफ स्टेट (रेलवे) राजेन गोहिन ने संसद को बताया था कि जितने भी रेल हादसे हुए हैं, उनमें से 53 फीसदी हादसे ट्रेन डिरेलमेंट की वजह से हुए हैं. उन्होंने बताया था कि काकोदर समिति की सिफारिशें लागू हुई हैं, लेकिन रेलवे की सुरक्षा के लिए कोई अथॉरिटी बनाने पर फैसला नहीं हुआ है. अभी तक नागरिक उड्डयन मंत्रालय के तहत कमीशन ऑफ रेलवे सेफ्टी नाम की संस्था रेलवे सुरक्षा की निगरानी करती है. नीति आयोग की रिपोर्ट का हवाला देते हुए रेल मंत्री ने बताया था कि पिछले पांच साल (2012-2017)में 347 बार ट्रेन डिरेल हुई, जिसमें 1011 लोगों की मौत हो गई. रेल मंत्री के मुताबिक पांच साल में कुल 586 हादसे हुए हैं, जिनमें 308 हादसे डिरेलमेंट की वजह से हुए हैं, 21 हादसे रेल फाटकों पर हुए और 199 हादसे मानव रहित रेल क्रासिंग पर हुए.
चीन ने भंग कर दिया था रेल मंत्रालय
चीन में 2011 में दो हाई स्पीड ट्रेन टकरा गई थीं. इस हादसे में 40 लोगों की मौत हो गई थी, जिसके बाद रेल मंत्री को इस्तीफा देना पड़ा था. इतना ही नहीं चीन ने अपना रेलवे मंत्रालय ही खत्म कर दिया था और उसे परिवहन मंत्रालय में शामिल कर लिया गया. इसके अलावा जो हाई स्पीड ट्रेन 350 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से चल रही थी, उसे 300 किलोमीटर प्रति घंटा कर दिया गया. जैसे भारत में रेलवे लाइन पर बहुत दबाव है, वैसे ही चीन में भी पहले से बनी हुई रेल लाइनों पर बहुत दबाव था. ऐसे में चीन ने अंधाधुंध तरीके से 20,000 किलोमीटर हाई स्पीड रेल नेटवर्क का निर्माण किया, जिसमें वर्ल्ड बैंक ने भी पैसा लगाया.
जापान में हादसे की वजह से नहीं हुई मौत
जापान में बुलेट ट्रेन नेटवर्क, जिसे शिनकैनसन (shinkansen) कहा जाता है, दुनिया का सबसे बेस्ट नेटवर्क माना जाता है. जापान टुडे ने एक डेटा जारी किया था. इसके मुताबिक 1964 से जापान में ट्रेन हादसे की वजह से किसी की मौत नहीं हुई है. इसके पीछे तकनीक का कमाल है. जापान में रेल की पटरियों में मोड़ ज्यादा हैं इसलिए जापान ने खास सेंसर लगाए जिससे ट्रेन आसानी से मुड़ सके. इसके अलावा, इन ट्रेनों का ऑटोमैटिक ब्रेकिंग सिस्टम किसी आर्ट से कम नहीं है. ये सिस्टम इतना ताकतवर है कि 320 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चल रही ट्रेन को भी 300 मीटर के अंदर रोक सकता है. जापान में अक्सर भूकंप के झटके आते रहते हैं. जैसे ही भूकंप के झटके महसूस किए जाते हैं, ट्रेन के सेंसर अलर्ट हो जाते हैं और ट्रेन रुक जाती है. ये अलार्म तब भी एक्टिव हो जाता है जब एक ट्रेन किसी दूसरी ट्रेन के पास चली जाती है. ऐसे में दोनों अपनी जगह पर रुक जाती हैं. जापान के रेल नेटवर्क की टाइमिंग भी पॉपुलर है. वहां की ट्रेनों के लिए मिनट ही नहीं सेकंड तक का टाइम तय रहता है. ट्रेन अगर एक मिनट से ज्यादा देर हो जाती है तो रेलवे यात्रियों से माफी मांगता है.