कुछ बार पहले भी बहुत बुरा लगा था जब ट्विंकल खन्ना ने अपने फूहड़ जोक्स से अपने सेलेब्रिटी स्टेटस की माइलेज लेने की कोशिश की थी. जैसे उन्होंने 2015 में एक इवेंट में करण जौहर से एक सवाल किया था जो मायावती के बारे में था. मायावती इसलिए क्योंकि वे और करण अंग्रेजी भाषा जानने की लग्जरी वाले, बहुत पैसे वाले, गोरी चमड़ी लेकर पैदा होने की प्रिविलेज वाले और बिना ज़मीनी संघर्ष के संपन्नता भरा जीवन पाने वाले लोग हैं. वहीं मायावती इसके बिल्कुल उलट हैं ( जातीय-सामाजिक गैर-बराबरी की बर्बरता से लड़-लड़कर आगे आईं). दूसरा, इंग्लिश स्पीकिंग और पैसे वाला महानगरी एलीट होने के नाते ‘काली त्वचा’ वाली ऐसी महिला राजनेता के प्रति उनमें घृणा होना प्रत्यक्ष है क्योंकि वो टि्वंकल और करण जैसों की फैशन सेसेंबिलिटी के उलट ‘बेढंगे’ सलवार कमीज़ पहनती हैं, उनके सैंडल भी ‘चीप लुकिंग’ होते हैं. ‘फिगर ‘भी उनका आकर्षक नहीं है और उनकी आवाज़ ‘मोटी’ सी, ‘अनाकर्षक’ है. और सबसे ऊपर, बोलने के स्वीट एटिकेट्स उन्हें आते ही नहीं. ट्विंकल और करण के सवाल और जवाब में यही सब पूर्वाग्रह मिलते भी होते हैं.
ट्विंकल ने पूछा था – तुम मायावती (बसपा नेता) बन जाओ तो सबसे पहले क्या करोगे?
करण ने जवाब दिया था – शेव करूंगा.
ये बहुत घृणित और निंदनीय था.
इसी तरह, अपनी बुक ‘मिसेज फनीबोन्स’ में उन्होंने अपने अकाउंटेंट की कमज़ोर अंग्रेजी का मज़ाक उड़ाया, जो असंवेदनशील था.
उन्होंने हिंदू लड़कों की मांओं के लिए cow शब्द का इस्तेमाल किया, जो पश्चिमी देशों में महिलाओं के लिए अभद्र गाली होता है.
ऐसे कई वाकये हैं जो बहुत चिंतित करते हैं कि ये कैसा ह्यूमर है जो विशुद्ध रूप से लोगों को यूं नीचा दिखाता है जिससे कोई पॉलिटिक्स नहीं सधती, जिससे कोई प्रगतिशीलता नहीं झलकती.
बीते शनिवार ट्विंकल ने एक फोटो ट्वीट की जिसमें उन्होंने समंदर किनारे एक व्यक्ति की नग्न फोटो बिना उसकी मंजूरी के खींच ली जो वहां शौच से निवृत हो रहा था. वो वहां शौच क्यों जा रहा था, उसकी क्या मजबूरी थी, ये सब जाने बगैर. लेकिन ट्विंकल ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि एक दिन पहले ही उनके पति अक्षय कुमार की फिल्म ‘टॉयलट एक प्रेम कथा’ रिलीज हुई थी. इस ट्वीट से उनके दो उद्देश्य सध गए – 1. उनके पति की फिल्म प्रमोट हो गई 2. अपने फॉलोवर्स के लिए और चर्चा में बने रहने के लिए उन्होंने विवादित ट्वीट का कोटा पूरा कर दिया.
लेकिन उनके इस बेफिक्र और लापरवाह काम ने ये किया कि समाज में उस असंवेदनशीलता और अमानवीयता को ज़रा और बढ़ा दिया, जो पहले ही ज्यादा मात्रा में है.
ट्विटर पर लोगों ने निराशा जताई लेकिन उन्हें तब भी अपने ह्यूमर का बचाव करना था तो उन्होंने फिर से वही फोटो ट्वीट कर दी. साथ में लिखा कि उनके पति की फिल्म ‘टॉयलट एक प्रेम कथा’ की रिलीज के साथ इस घटना की टाइमिंग उन्हें विडंबनात्मक लगी इसलिए उन्होंने इसे शेयर किया और किसी को ठीक नहीं लगा तो उन्हें फर्क नहीं पड़ता.
उन्हें फर्क नहीं पड़ता.
मुझे पड़ता है.
क्योंकि ये इस सोमवार की ही बात है जब मध्य प्रदेश के गुढोरा गांव की प्राइमरी स्कूल की एक छह साल की दलित बच्ची परेशानी में खुले में शौच जा रही थी और ऊंची जाति के किसान पप्पू सिंह ने उसे देख लिया. उसने उस बच्ची का किया मल उसी के हाथ से उठवाया. बच्ची रोते हुए अपने घर पहुंची थी.
मुझे फर्क पड़ता है.
क्योंकि दिसंबर 2016 में मैंने ये वीडियो देखा था जहां उज्जैन में एक बुजुर्ग ग्रामीण शहर में अपना शौच रोक नहीं पाया और मजबूरन सड़क किनारे रिलीव हो गया. लेकिन वहां खड़े कुछ लोगों ने उन्हें थप्पड़ मारने औऱ पीटना शुरू कर दिया. इस बुजुर्ग ने अपने पूरे जीवनकाल में ये कभी नहीं जाना था कि इंसान से ज्यादा महत्वपूर्ण टट्टी हो चुकी है. वो हड़बड़ाया हाथ जोड़ने लगा. कहने लगा, मारते क्यों हो मैं सब साफ कर दूंगा. अपनी छोटी सी फटी हुई धोती उसने बिछाई और अपनी दस्त को दोनों हाथों से बटोरकर उसमें डालना शुरू कर दिया. फिर समेटकर खड़ा हो गया. वो लोग पीटते रहे, हंसते रहे और वीडियो बनाते रहे. उन लोगों जैसी ही हंसी अब ट्विंकल के चेहरे पर दिखी. पप्पू सिंह, उज्जैन के ये लोग और इंटीरियर डिजाइनर सेलेब्रिटी ट्विंकल तीनों एक ही तरह के आक्रांता हैं.
स्वच्छ भारत अभियान और अक्षय कुमार के उसके प्रति उत्साहित होकर फिल्म बनाने के एजेंडे से ज्यादा मुझे उस आदमी की परवाह है जो समंदर किनारे अपने प्रेशर को और अधिक रोक नहीं पाया. इस स्थिति में जो समझदारी लेनी चाहिए, वो मैं ट्विंकल या अक्षय या किसी सरकारी अभियान से नहीं लूंगा, मैं इसके लिए रितेश बत्रा (द लंचबॉक्स 2013) की शॉर्ट फिल्म ‘द मॉर्निंग रिचुअल’ देखूंगा, जो उन्होंने 2008 में बनाई थी. ये फिल्म सही मायनों में वो दृष्टि रखती है जिसकी अपेक्षा पढ़े-लिखों से की जाती है. जिन गांवों पर हम इन दिनों इसलिए हंसने लगे हैं क्योंकि इतनी सदियों बाद खुले में शौच जाना एकाएक बहुत बुरा काम हो गया है, वो ‘अनपढ़’ लोग भी इतने इंसान तो हैं कि कम से कम इस बेहद शिष्ट घड़ी में लोगों की फोटो नहीं खींचते या खड़े होकर उसे लकड़बग्घे की तरह घूरते नहीं हैं.
अद्भुत है कि न्याय शब्द का इस्तेमाल उन्होंने किया.
जब उस आदमी के नंगे नितंबों वाली फोटो उन्होंने बिना पूछे ट्विटर पर दो बार डाली तब जैसे उस आदमी की न तो कोई इज्जत थी, न लाचारी थी, न कोई ह्यूमन राइट था.
अगर ये लोग इस समाज के ओपिनियन मेकर हैं. अगर ये इस समाज के पढ़े लिखे लोग हैं. अगर ये लोग इस समाज के मानवतावादी लोग हैं और यही इनकी संवेदनशीलता का लेवल है तो बहुत निराश करने वाले पल है. बहुत पीड़ा की बात है.
साभार: द लल्लनटॉप