हम भारतीय हैं और इस नाते हमें बहुत सी अजीब चीज़ें करने का हक़ है. और हमारी इन हरकतों पर कोई उंगली भी नहीं उठा सकता. भईया हम लाइन में खड़े रहने में विश्वास नहीं करते. जब धक्का मार के या झगड़ के आगे जा सकते हैं, तो बेकार का लाइन में क्यों लगना! अगर पब्लिक प्लेस में अपने फ़ोन से फुल वॉल्यूम में गाना नहीं बजाया, तो क्या घंटा इंडियन हो? हमारी सबसे फ़ेवरेट आदत है लोगों के अनकम्फ़र्टेबल हो जाने तक उनको घूरते रहना. मुड़ते वक़्त इंडिकेटर देने की तो जैसे हमारे यहां सरकारी मनाही है. हमारे यहां पर डकारना तो स्वीकार्य है, लेकिन अगर उस दौरान हाथ मुंह पर चला गया, तो गलत बात है. बहुत गलत बात है! और भी ढेरों चीज़ें करते हैं हम. और पूरे हक़ से बिना डरे करते हैं. लेकिन सबसे क्रांतिकारी चीज़ जो हम करते हैं, वो है अपने टोमेटो केचप को बेइंतहा मोहब्बत. मेरे ‘लाल’ के बिना तो हमारा खाना पूरा ही नहीं होता.
सॉस के बिना तो हमारा खाना ही पूरा नहीं होता
हम इंडियन्स को किसी भी खाने में केचप डाल कर उसका स्वाद बिगाड़ने में महारथ हासिल है. अगर भरोसा ना हो तो कभी आज़मा लो! जब सॉस ख़त्म हो जाने के बाद बोतल से निकलने से इंकार कर देता है, उसके बाद भी हम उसके पिछवाड़े को इतना ठोक-पिट देते हैं कि एक टाइम के खाने भर का माल तो निकल ही आता हैं. इस सब के बाद तो वो इतना बेचारा हो जाता है कि उसे खुद ही कहना पड़ता है कि ‘भाई, आराम से यार’!
यहां पर मैं आपको एक चीज़ बताता चलूं कि मुझे सॉस/केचप से नफरत है. ये चीज़ मुझे बिलकुल भी नहीं पसंद. जैसे खाने में बाल या सूप में मक्खी आपको परेशान करती है, ठीक वैसे ही ये चीज़ मुझे डरा देती है. और इसके लिए प्लीज मुझे जज मत करना. जहां डेढ़ अरब की जनसंख्या वाला पूरा देश केचप से इतना प्यार करता है, वहीं मैं हूं जिसे इस स्थिति में अपवाद होने जैसे फीलिंग आती है. इस केचप का हमारे देश में इतना ज़ोर है कि ये हर जगह भारी डिमांड में रहती है. चाहे वो सस्ती-चीपड़ फ़ूड जॉइंट हो, पॉप-कल्चर में जावेद जाफ़री का ऐड हो या महंगे होटलों में स्नैक्स, डिनर या एपेटाईज़र हो.
अमेरिका से आई थी ये सॉस नाम की बीमारी
इस केचप की शुरुआत हमारे देश में तब हुई थी, जब हम इसे ‘कूल अमेरिकन’ चीज़ समझकर अपनी सहूलियत के अनुसार ‘कूल या मॉडर्न’ दिखने के लिए इस्तेमाल करने लगे थे. इंटरनेट से पहले हमारे वेस्टर्न एक्सपोज़र का एकमात्र साधन सिर्फ केचप था. क्योंकि तब तक हम इसे अमेरिकन चीज़-बर्गर और हॉट-डॉग के साथ खा चुके थे. इसको हमने समय के साथ बहुत अपना बना लिया क्योंकि हमारे पास इससे बेटर ऑप्शन नहीं था. लेकिन अब इससे हम दूर नहीं हो पा रहे हैं, क्योंकि इससे साथ हमारी ढेरों यादें जुड़ी हुई हैं. ये सॉस न हुआ एक्स गर्लफ्रेंड /बॉयफ्रेंड हो गया, जिसको हम चाह कर भी भूल नहीं पा रहे हैं.
हम लोगों ने इस सॉस के साथ समोसे और घर पर बनाए हुए स्नैक्स भी खाने शुरू कर दिए. इससे पहले हम वो चीज़ें हरी वाली चटक चटनी के साथ खाते थे. जो इससे कई गुना बेहतर और हेल्दी थी. इस सॉस का टैंगी टेस्ट इसे किसी भी खाने के साथ एडजस्ट कर देता है, चाहे वो इंडियन फ़ूड हो या कॉन्टिनेंटल. लेकिन हमारे यहां के तीख़े खाने के साथ इसको एडजस्ट होने में थोड़ी प्रॉब्लम हुई. लेकिन अब यहां भी एडजस्ट हो गई है.
इस सॉस से हमारा ओबसेशन ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा
अब मैं अपने लाइफ के उस स्टेज पर पहुंच गया हूं, जहां मैं कोई भी खाना आर्डर करने से पहले सड़ी हुई सी शक्ल बनाकर ‘सॉस मत देना’ का डिस्क्लेमर दे देता हूं. चाहे वो कोई स्टाइलिश अजीब से नाम वाली फ्रेंच डिश हो, या रोड साइड ऑमलेट. कभी-कभी तो आर्डर लेने वाला भी मेरा आर्डर सुनकर मेरी वाली लुक ही वापस दे देता है.
एक बार मैं अपने एक फ्रेंड के घर से गुस्सा होकर चला आया था क्योंकि उसने मेरी मैगी के ऊपर आधी बोतल सॉस उड़ेल दी थी. कई बार मुझे ऐसे कई आर्डर वापस करने पड़े हैं क्योंकि उनपर सॉस डला होता है. मेरे पास ऐसी चीज़ों की लंबी लिस्ट है, जो मैंने सॉस होने के चलते वापस कर दी थी. जैसे- पिज़्ज़ा, शोरमा, पास्ता, काठी रोल, नूडल्स, चीज़ केक, गुलाब जामुन, पानी का गिलास, किताब, जूते, लैपटॉप, फ़ोन और न जाने क्या-क्या!
कई बार मैंने बच्चों का खाना खत्म करवाने के लिए पेरेंट्स को उनके खाने में सॉस डालते हुए भी देखा है. वो भी जब खाने में रोटी-सब्ज़ी था. और बच्चे उनसे भी एक कदम आगे थे जो सॉस देखकर खाना खा भी गए. (यहां पर एक इमोजी है, मेरा एक्सप्रेशन डिफाइन करने के लिए.)
मार्केट में खाने से ज़्यादा सॉस की वेरायटीज अवेलेबल है
आजकल तो सॉस बनाने वाली कंपनियां भी इस मौके को ‘स्वीट n सावर’, ‘हॉट एंड स्वीट’, ‘ग्रीन’, ‘पुदीना’, ‘चिल्ली’, मस्टर्ड, ‘मैयोनिज़’, ‘वसाबी’, ‘पेरी-पेरी’, ‘मसाला’, ‘बीबीक्यू’, और 500 अन्य तरह की सॉस बनाकर बड़े अच्छे से भुना रही हैं.
भारत को मॉडर्न बनाने का जिम्मा अपने कंधो पर उठाने वाली कंपनी मेकडोनल्ड ने तो सॉस के एक सैशे के लिए 1 रुपया भी लेना शुरू कर दिया हैं. क्योंकि उनका सॉस भी लंच तक ख़त्म होने लगता है (जैसा मुझे लगता है). वो भी लोगों में इसके इस्तेमाल को कम करना चाहते हैं. इसके लिए उन्होंने और कड़े नियम बनाने शुरू कर दिए हैं. अपना आउटलेट बंद करना, इस कड़ी में उनका पहला कदम है.
अगर हमारे यहां न्यूक्लियर अटैक भी हो जाए, तो मानव जाति का नामों-निशान तो मिट जाएगा, लेकिन ये सॉस की बोतलें हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए विरासत में यूं ही बिखरी हुई छोड़ कर जाएंगे.
अतिशयोक्ती के लिए क्षमा!