25 अगस्त को भले ही सीबीआई कोर्ट ने गुरमीत राम रहीम को सजा सुना दी, लेकिन सीबीआई के लिए इस केस की तह तक जाना कभी आसान नहीं था. सीबीआई के दो अधिकारियों की बदौलत ये मामला अंजाम तक पहुंच पाया. ये अफसर थे सीबीआई के तत्कालीन डीआईजी मुलिंजा नारायणन और सीबीआई के डीएसपी सतीश डागर. इन दोनों के हौसले को सलाम जिनकी वजह रेपिस्ट बाबा गुरमीत राम रहीम सलाखों के पीछे पहुंच पाया.
मुलिंजा को दिया केस, ताकि वो इसे बंद कर सकें
इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक सीबीआई के तत्कालीन डीआईजी मुलिंजा नारायणन को 2007 में यह केस सौंपा गया था. केस हाथ में लेने के साथ ही उन्हें डेरा समर्थकों की ओर से धमकी भी मिलने लगी थी. मुलिंजा बताते हैं कि जिस दिन उन्हें केस सौंपा गया था, उसी दिन उनके अधिकारी उनके रूम में आए और कहा कि ये केस तुम्हें जांच करने के लिए नहीं, बंद करने के लिए सौंपा गया है. इसके अलावा मुलिंजा पर और भी अधिकारियों और नेताओं का भी दबाव था, लेकिन वो नहीं झुके.
‘मुझे पता था कि वो एक डरा हुआ आदमी है’
मुलिंजा बताते हैं कि उन्हें ये केस अदालत ने सौंपा था, इसलिए झुकने का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता था. सीबीआई ने इस मामले में 2002 में एफआईआर दर्ज की थी. पांच साल तक मामले में कुछ नहीं हुआ तो कोर्ट ने केस एक ऐसे अधिकारी को सौंपने को कहा जो किसी अधिकारी या नेता के दबाव में न आए. जब केस मेरे पास आया, तो मैंने अपने अधिकारियों से कह दिया कि मैं उनकी बात नहीं मानूंगा और केस की तह तक जाउंगा. इसके अलावा बड़े नेताओं और हरियाणा के सांसदों तक ने मुझे फोन कर केस बंद करने के लिए कहा, लेकिन मैं नहीं झुका. हाई कोर्ट ने केस मुझे सौंपा था, इसलिए मुझे किसी के आगे झुकने की जरूरत नहीं थी.
जांच के बारे में याद करते हुए मुलिंजा नारायणन ने बताया कि जब बाबा को पूछताछ के लिए बुलाया जाता था, तो वो बाबा बनने की कोशिश करते थे, लेकिन मुझे लगता था कि वो एक डरा हुआ आदमी है. मुलिंजा ने बताया कि उन्हें सबसे ज्यादा आश्चर्य तब हुआ, जब उनके जूनियर अधिकारी भी उन्हें केस बंद करने के लिए कह रहे थे.
घर खोजते रहे डेरा समर्थक
मुलिंजा को डेरा समर्थकों की ओर से भी लगातार धमकी मिल रही थी. वो उनका घर तलाश करने और उनके परिवार को परेशान करने की कोशिश कर रहे थे. इसके अलावा एक लेटर के आधार पर मामले की जांच करना इतना आसान नहीं था. लेटर की जांच के दौरान पता चला कि ये पंजाब के होशियारपुर से आया है, लेकिन इसे किसने भेजा है, ये पता नहीं चल पाया. नारायणन ने बताया कि मुझे परिवार के लोगों को मैजिस्ट्रेट के सामने 164 का बयान देने के लिए समझाना पड़ा, क्योंकि पीड़ित और उसके परिवार के लोगों को डेरा की ओर से धमकी मिल रही थी.
सब इंस्पेक्टर से CBI जॉइंट डायरेक्टर पद तक पहुंचे
लगातार मुसीबतें झेलते हुए मुलिंजा 2009 में सीबीआई के जॉइंट डायरेक्टर की पोस्ट से रिटायर हुए थे. मुलिंजा सीबीआई में बतौर सब इंस्पेक्टर आए थे. अपनी 38 साल की सेवा में उन्हें ईमानदारी का ईनाम भी मिला और वो जॉइंट डायरेक्टर के पद से रिटायर हुए.
एक और बहादुर अफसर सतीश डागर का मिला साथ
मुलिंजा जब सीबीआई के डीआईजी थे, तो सतीश डागर एक और अफसर थे, जो एसीपी थे. 2005-06 के दौरान केस सतीश डागर के हाथ में था. उन्होंने बिना किसी दबाव में आए प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और हाई कोर्ट को भेजे गए पत्र की तफ्तीश की और पत्र भेजने वाली महिला को तलाश कर लिया. डागर ने ही सुरक्षा का भरोसा दिलवाकर दोनों महिलाओं को गवाही के लिए तैयार किया. जब केस की सुनवाई शुरू हुई तो राम रहीम के समर्थक इनको धमकाते रहे, लेकिन सीबीआई के एसपी ऑफिस में विशेष कोर्ट बनाकर सुनवाई जारी रही. इस मामले में जिस पत्रकार राम चंदर छत्रपति की हत्या हुई, उनके बेटे अंशुल ने भी सतीश डागर के साहस की तारीफ की है. अंशुल के मुताबिक सतीश डागर पर अधिकारियों और नेताओं का दबाव था, तो दूसरी ओर उन्हें डेरा समर्थकों की ओर से धमकी भी मिल रही थी. लेकिन डागर ने उस वक्त में भी कमाल का साहस दिखाया और केस को अंजाम तक पहुंचाने में सफल रहे.
साभार: द लल्लनटॉप