एक हफ्ते में 64 मौतें. अगर कोई आपदा या आतंकी हमला न हो तो ऐसा नजारा श्मशान का ही हो सकता है. ऐसा हुआ है. आतंकी हमले में नहीं, बाढ़, भूकंप या सुनामी जैसी आपदा कोई आपदा भी नहीं. और 64 बच्चों ने अपनी जान गंवा दी वो भी अस्पताल में. मीडिया रिपोर्ट्स और तीमारदार कह रहे हैं कि मौतें ऑक्सीजन की कमी से हुई. सरकार कह रही है कि इंसेफेलाइटिस से हुई, हकीकत जो भी हो, लेकिन मौतें हुई हैं. ये मौतें पिछले 40 साल हो रहीं हैं, कभी कम तो कभी ज्यादा. इस एक हफ्ते को छोड़ भी दिया जाए, तो हकीकत यही है कि पिछले 40 साल से हर साल एक हजार से अधिक बच्चों की मौत इस बीमारी की वजह से हो जाती है.
अब भी लक्षण देखकर होता है इलाज
गोरखपुर में इंसेफेलाइटिस की शुरुआत 1978 में हुई थी. तब से अब तक 40 साल बीत चुके हैं. 50 हजार से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं, लेकिन बीमारी का इलाज तो छोड़िए उसकी वजह तक पता नहीं चल पाई है. हालात ये हैं कि अस्पताल में आने वाले बच्चे का इलाज लक्षण देखकर किया जाता है. ऐसी कोई जांच अब तक नहीं बन पाई है, जिसके जरिए असल में बताया जा सके कि बच्चा इंसेफेलाइटिस से ही पीड़ित है. बस इतना सा हुआ है कि पिछले साल के मॉनसून सत्र में गोरखपुर के सांसद और इस वक्त यूपी की सीएम योगी आदित्यनाथ ने संसद में मुद्दा उठाया था. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने उन्हें बताया कि इस बीमारी को नोटिफिएबल डिजीज की श्रेणी में रख दिया गया है. बयान के बाद बीमारी की श्रेणी तो बदली, इलाज के लिए बजट भी पहले की तुलना में कई गुना बढ़ गया. लेकिन इलाज क्या हो, ये पता नहीं चल पाया है.
17 साल पहले बनी लैब भी नाकाम
सन् 2000 में बीआरडी मेडिकल कॉलेज में नेशनल वायरॉली रिसर्च इंस्टीट्यूट, पुणे की एक शाखा स्थापित की गई थी. इसका मकसद बीमारी के वायरस की जांच करना था. 17 साल बीतने को आए, लेकिन यह रिसर्च इंस्टीट्यूट अब तक किसी वायरस की पहचान नहीं कर सका है. इंस्टीट्यूट से जुड़े सूत्रों की मानें तो स्थापना के बाद से ये जिस बीमारी पर रिसर्च कर रहे थे, वो जापानी इंसेफेलाइटिस था. लेकिन अब जो बीमारी है, उससे एक कदम आगे निकल गई है, जिसे अक्यूट इंसेफेलाइटिस कहा जा रहा है. अक्यूट इंसेफेलाइटिस के लिए 100 से ज्यादा वायरस जिम्मेदार हैं. अब कौन से वायरस की वजह से बच्चों की मौत हो रही है, इसका पता लगाने में रिसर्चर्स अब तक नाकाम हैं. 2014 में अमेरिका के अटलांटा से भी आई टीम ने इंसेफेलाइटिस पर जानकारियां जुटाईं, लेकिन वो टीम भी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी. फरवरी 2016 में जब मानवाधिकार आयोग की टीम बीआरडी मेडिकल कॉलेज पहुंची और मौतों की वजह जाननी चाही, तो बताया गया कि मौतों की वजह अनवांटेड फीवर है.
पीएम ने कहा था, एक भी बच्चे को मरने नहीं देंगे
21 अप्रैल 2016 को गोरखपुर में एम्स की नींव रखी गई थी. उस वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि इंसेफेलाइटिस की वजह से एक भी बच्चे की मौत नहीं होगी. प्रधानमंत्री बनने से पहले भी पीएम जब गोरखपुर के पड़ोसी जिले पडरौना में पहुंचे थे तो कहा था कि उनकी सरकार बनी तो रोकथाम के इंतजाम किए जाएंगे. अब केंद्र के साथ ही प्रदेश में भी बीजेपी की ही सरकार है, लेकिन प्रधानमंत्री का कहा, सच से कोसों दूर है.
हर साल अखबारों के पहले पन्ने पर छपती हैं खबरें
पूर्वांचल में इंसेफेलाइटिस से हो रहीं मौतों की खबर भले ही राष्ट्रीय स्तर अब चर्चा का विषय बनी हो, लेकिन स्थानीय मीडिया में हर सीजन में इसे जगह दी जाती है. गोरखपुर शहर के अखबारों में पहले पन्ने पर खासतौर पर जगह बनाई जाती है. जैसे किसी अखबार में सूर्योदय-सूर्यास्त, सोने-चांदी के भाव का कॉलम पहले से तय होता है, वैसे ही इंसेफेलाइटिस से हो रही मौतों का आंकड़ा बताने के लिए भी अखबार के पहले पन्ने पर छोटी सी जगह होती है, जहां बीआरडी अस्पताल में मरने वाले बच्चों का आंकड़ा लिख दिया जाता है.
इलाज क्या है, कोई ठोस जवाब नहीं
इंसेफेलाइटिस पर रिसर्च से जुड़े डॉक्टरों का दावा है कि यह एक जल जनित बीमारी है, जो गंदगी से होती है. वहीं कुछ डॉक्टरों का मानना है कि यह बीमारी सुअरों और मच्छरों की वजह से होती है. जो मच्छर सुअरों की देह पर बैठते हैं, अगर वो किसी बच्चे को काट लें, तो बच्चे को इंसेफेलाइटिस हो जाता है. इससे बचने के लिए केंद्र की मोदी सरकार और प्रदेश की योगी सरकार दोनों ही स्वच्छ भारत अभियान चला रही हैं. इन अभियानों को ठीक से चलाया जाए तो बीमारी को फैलने से तो रोका जा सकता है, लेकिन जिसे ये बीमारी हो गई है, उसके इलाज का क्या होगा, इसका कोई ठोस जवाब किसी के पास नहीं है.
डॉक्टरों की मानें तो इंसेफेलाइटिस का सबसे ज्यादा असर 1 से 15 साल के बच्चों पर पड़ता है. अगर शुरुआती दिनों में ही बच्चे का इलाज शुरू हो जाता है, तब तो उसके बचने की संभावना ज्यादा होती है. देर होने पर बच्चे की मौत हो जाती है. अगर कोई बच्चा गंभीर हालात के बाद भी बच जाता है, तो वो या तो मानसिक तौर पर कमजोर हो जाता है या फिर शारीरिक तौर पर विकलांगता का शिकार हो जाता है.
अंतिम पनाहगाह है बीआरडी मेडिकल कॉलेज
इंसेफेलाइटिस का असर गोरखपुर के अलावा कुशीनगर, महाराजगंज, देवरिया, सिद्धार्थनगर, संत कबीर नगर, बहराइच और बस्ती के अलावा नेपाल और बिहार के कुछ जिलों में भी है. किसी बच्चे को बीमारी होती है, तो पहले आस-पास के किसी सरकारी या प्राइवेट अस्पताल में जाता है. जब हालात बिगड़ जाते हैं तो उन्हें बीआरडी मेडिकल कॉलेज रेफर कर दिया जाता है, जहां कुछ ही बच्चे बच पाते हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अकेले बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ही 500 से अधिक बच्चों की मौत एक साल में हो जाती है, वहीं करीब इतने ही बच्चों की मौत दूसरे अस्पतालों में हो जाती है.