कर्नाटक के कोडागु से एक नदी निकलती है और तमिलनाड में समुद्र के पास जाकर बिखर जाती है. भूगोल की ज़बान में इसे डेल्टा कहा जाता है. इसे डेल्टा के पास बसा है एक शहर तिरुचिरापल्ली. अंग्रेज इतना लंबा नाम बोल नहीं पाते थे तो हरीश को कतर कर हैरी करने के अंदाज़ में उन्होंने इस शहर का नाम रखा त्रिची. नक्शे में देखेंगे तो यह शहर तमिलनाडु के बीचोबीच है.
मंदिरों के अलावा यह शहर सूबे में अपनी पढ़ाई के लिए जाना जाता है. 1976 में इस शहर के शीतललक्ष्मी रामास्वामी कॉलेज में एक लड़की ने अर्थशास्त्र की पढ़ाई के लिए एडमिशन लिया. 1978 में पढ़ाई करने के बाद वो यहां से दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू कॉलेज चली गई, आगे की पढ़ाई करने. यहां गोदावरी के किनारे से आया एक लड़का उस लड़की का इंतज़ार कर रहा था. लड़की का नाम था निर्मला सीतारमन और लड़के का नाम था पराकला प्रभाकर.
जेएनयू में यह वो दौर था जब यहां एक ही छात्र संगठन, स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ़ इंडिया की तूती बोलती थी. यह मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का छात्र संगठन था. सोवियत रूस के टूटने में अभी समय था. प्रकाश करात और सीताराम येचुरी छात्रसंघ के नेता के तौर पर सियासत में रवां हो रहे थे. एसएफआई के नेता मेस में बहस के दौरान टेबल पीट-पीटकर कहा करते थे,
“55 फीसदी ग्लोब पर लाल झंडा फहरा रहा है, एक दिन पूरी दुनिया में मज़दूरों का राज होगा.”
इस दौर में बनारस हिन्दू विश्ववद्यालय का एक छात्रनेता जेएनयू पढ़ने आया. नाम था आनंद कुमार. धीरे-धीरे और भी लोग आनंद कुमार के साथ गोलबंद होने लगे. तमाम तरह की विचारधारा वाले. गांधीवादी, समाजवादी और लेफ्ट का एक अम्ब्रेला संगठन खड़ा हुआ. यह संगठन एसएफआई के एकाधिकार के खिलाफ खड़ा था, लेकिन इसकी विचारधारा उदारवादी थी. यह आरएसएस और बीजेपी का उतना ही कड़ा आलोचक था, जितना लेफ्ट के संगठन थे. निर्मला जब जेएनयू आईं तो इस संगठन के साथ जुड़ गईं. वो इस संगठन की सक्रीय सदस्य थीं.
यहां उनकी मुलकात हुई परकला प्रभाकर से. प्रभाकर के पास अपनी राजनीति क विरासत थी. उनकी मां आंध्रप्रदेश के नारासपुरम की विधायक थीं. प्रभाकर के पिता शेषावतारम शुरुआती दौर में कम्युनिस्ट रहे. बाद में कांग्रेस में आ गए. 70 के दशक तक आंध्रप्रदेश की कांग्रेस सरकार में पांच दफा मंत्री रहे. प्रभाकर जब जेएनयू आए तो कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई में भर्ती हो गए. वो प्रकाश करात के खिलाफ छात्रसंघ अध्यक्ष के पद पर चुनाव भी लड़े और हार गए.
पति-पत्नी की सियासत हमेशा अलग रही
दूसरी तरफ निर्मला अपने संगठन ‘फ्री थिंकर्स’ में सक्रीय तो रहीं लेकिन चुनाव से हमेशा दूर रहीं. वो पर्चा बांटने, पोस्टर चिपकाने और क्लास-टू-क्लास कैम्पेन जैसे ज़मीनी काम करती रहीं. रिश्ते की शुरुआत के पहले दिन से यह जोड़ा कभी सियासत की किताब के एक पेज पर नहीं रहा. सिवाए उस वक्त के, जब प्रभाकर ने कुछ समय के लिए बीजेपी ज्वाइन की. जेएनयू से पढ़ाई पूरी करने के बाद दोनों ने शादी कर ली. प्रभाकर आगे की पढ़ाई के लिए ‘लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स’ चले गए. निर्मला भी साथ ही थीं. वहां उन्होंने शुरूआती दौर में एक डेकॉर शॉप में सेल्स गर्ल की नौकरी की. यह ज़्यादा दिन तक नहीं चला. जल्द ही वाटरहाउस कूपर में रिसर्चर की नौकरी मिल गई.
1991 में ये जोड़ा जब भारत लौटा, निर्मला पेट से थीं. भारत आने के कुछ समय बाद ही निर्मला एक बच्ची की मां बनीं. 1994 में प्रभाकर ने वेस्ट गोदावरी ज़िले की नारासपुरम सीट से कांग्रेस की टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ा. यह वो सीट थी, जो उन्हें विरासत में मिली थी. प्रभाकर अपने पिता की विरासत संभाल नहीं पाए और चुनाव में हार गए. लेकिन प्रभाकर का पॉलिटिकल ग्राफ बहुत गिरा नहीं. केंद्र में नरसिम्हा राव की सरकार थी और प्रभाकर के रिश्ते राव के साथ अच्छे थे. लेकिन यह भी ज़्यादा दिन चला नहीं. 1995 में कार्यकाल पूरा करके नरसिम्हा राव राजनीतिक अवकाश में चले गए. प्रभाकर के राजनीतिक अवसान की शुरुआत हो चुकी थी. उन्होंने मौका भांपते हुए बीजेपी जॉइन कर ली. निर्मला इस समय तक गरीब बच्चों के लिए स्कूल चलाने जैसे समाजसेवा के काम कर रही थी. सियासत में उनका डेब्यू होने में अभी वक़्त था.
अटल के ज़माने में भाजपा के करीब आईं
1999 में आई अटल बिहारी सरकार के आखिरी दिनों में निर्मला सीतारमण ने बीजेपी के करीब आईं. वाजपेयी सरकार ने उन्हें राष्ट्रीय महिला आयोग का सदस्य नियुक्त किया. इस बीच वो संघ के आर्थिक मंच ‘स्वदेशी जागरण मंच’ से भी जुड़ गई. इसी बीच केंद्र में सरकार पलट गई और निर्मला सीतारमण को राष्ट्रीय महिला आयोग से रुखसत होना पड़ा.
2006 में जब बीजेपी के सितारे गर्दिश में थे, निर्मला सीतारमण ने अधिकारिक तौर पर बीजेपी जॉइन की. उन्हें बीजेपी की आंध्र इकाई का प्रवक्ता बनाया गया. पति पहले से बीजेपी में थे. 2008 में प्रभाकर बीजेपी से अलग हो गए और अभिनेता चिरंजीवी के साथ मिलकर ‘प्रजा राज्यम’ नाम से अलग पार्टी बना ली. निर्मला सीतारमण बीजेपी में बनी रहीं. 2010 में बीजेपी की राष्ट्रीय स्तर प्रवक्ताओं की एक टीम बनी. इस दौरान आंध्र प्रदेश में निर्मला सीतारमण अपना लोहा मनवा चुकी थीं. रवि शंकर प्रसाद के नेतृत्व में बनी इस टीम के सदस्य के तौर पर निर्मला सीतारमण को दिल्ली बुला लिया गया.
प्रवक्त बन कर लाइमलाइट में आईं
2010 में निर्मला सीतारमण बीजेपी की प्रवक्ता के तौर पर पहली बार राष्ट्रीय चैनल पर नमूदार हुईं. जेएनयू की पढ़ाई उनके काम आई. वो टीवी बहसों में पूरी तैयारी के साथ शामिल होती. तथ्यों के साथ अपनी बात रखती. बहस के दौरान कभी उन्हें चिल्लाते हुए नहीं पाया गया. 2014 के चुनाव के दौरान उन्होंने बड़ी मजबूती से नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी को टीवी के पर्दे पर रखा. टीवी स्टूडियो के बाहर पत्रकारों को यह कहते हुए सुना गया कि अगर नरेंद्र मोदी की सरकार आती है तो निर्मला सीतारमण कैबिनेट का हिस्सा बनेंगी.
2014 का साल जेएनयू से निकले इस जोड़ों के लिए खुशकिस्मत साबित हुआ. केंद्र में बीजेपी की सरकार आने के बाद निर्मला सीतारमण को वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय का राज्यमंत्री बनाया गया. इधर आंध्र के विधानसभा चुनाव में तेलगू देशम पार्टी की सरकार आ गई. चंद्रबाबू नायडू को अपनी सरकार में काबिल लोगों की तलाश थी. प्रभाकर को कम्यूनिकेशन एडवाइज़र के तौर पर बुला लिया गया. यह पद कैबिनेट मंत्री का दर्जा रखता है. अब निर्मला देश की रक्षा मंत्री हैं. कभी जेएनयू के ढाबों पर चाय पीता यह जोड़ा, आज देश की सबसे ताकतवर जुगलबंदियों में से एक है.
इतने तगड़े प्रमोशन की वजह क्या है
वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय की राज्यमंत्री रहते हुए निर्मला का प्रदर्शन ऐसा नहीं रहा जिससे समझा जाए कि उन्हें ‘अच्छे काम’ का इनाम मिला है. उन्हें मिले इतने तगड़े प्रमोशन की वजह दूसरी है. बात ये है कि 2018 में कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं. अब तक वेंकैया नायडू भाजपा के लिए दक्षिण भारत से आने वाला सबसे बड़ा चेहरा थे. लेकिन अब वो उपराष्ट्रपति बन कर राजनीति से ‘ऊपर’ उठ गए हैं. तो इलाके से नया नेता चाहिए था. निर्मला तमिलनाडु से आती हैं. दक्षिण के राज्यों में किसी राजनीतिक दल से उनकी खटपट नहीं रही. उनका राजनीतिक करियर में बड़े विवाद भी नहीं रहे हैं. इसलिए वैंकैया के जाने से पैदा हुई वेकेंसी के लिए निर्मला स्वाभाविक पसंद थीं. निर्मला का प्रमोशन मोदी सरकार का इन राज्यों को इशारा है कि केंद्र की सरकार में दक्षिण राज्यों की अपनी अहमियत है.
साभार:द लल्लनटॉप