संवरते-संवरते बिखरने लगे हैं,
मेरे ख्वाव खुलकर महकने लगे हैं।
अभी दूर है मंजिलों से मुसाफिर,
कदम कारवां के भटकने लगे हैं।
रवां हो गईं कश्तियाँ बहते-बहते,
लहर की मुआफिक संभलने लगे हैं।
न जाने कहाँ ले के जाए मुक़द्दर,
सनम बेखुदी में निकलने लगे हैं।
खता तो बता दो सजा देने वालों,
कई फैसले तेरे खलने लगे है।
नहीं सत्य का बोलवाला रहेगा,
यहाँ झूठ के पाँव जमने लगे हैं।
दरख्तों से अब छाँव मिलती नहीं है,
शहर धीरे-धीरे सुलगने लगे हैं।
वफ़ा ढूंढकर लाइयेगा मिले तो,
हवाओं के पर भी कतरने लगे हैं।
ज़हर बन गई है दवा पीते-पीते,
ज़खम और मरहम पिघलने लगे हैं।
ख़ुशी को नज़र लग गई आंसुओं की,
फुहारों की मानिंद झरने लगे हैं।
फ़क़त एक एहसास की रौशनी है,
मेरे चाँद-सूरज भी बुझने लगे हैं।