बुझता सूरज धुंआं-धुंआं सा है,
क़तरा-क़तरा ज़मीर प्यासा है ।
जान जलती है मन सुलगता है,
ज़ख्म-ऐ-दिल भी हरा-भरा सा है।
लो ले गई पंख तुड़ा कर आंधी,
खाली झोंखा हवा-हवा सा है।
फिर वही पुरानी आग फूंक दो,
ज़िस्म ज़िन्दा नहीं मरा-मरा सा है।
रात आँखों में दिन ठहर जाए,
मन में उम्मीद और निराशा है।
अगर रंग को रंग कह नहीं सकता,
ये कोई और माज़रा सा है।
अपने कंधों पे ले चलो हमको,
मौत अब तेरा आसरा सा है।