खुली आँखों से मैं ,जब-जब शहर को देखता हूँ,
बुझे से लोग मिलते हैं ,कई टूटे हुए घर देखता हूँ ।
बड़ी रफ़्तार से आगे निकलते,जो लोग अक्सर,
उन्हें भी भीड़ में तन्हा ,अधिकतर देखता हूँ ।
पलटता वक्त जब भी लौटता ,है प्रश्न लेकर ,
हैं चिपके सबके चेहरों पर,मौन!उत्तर देखता हूँ ।
हाल पूछा , चूमकर जलते चिरागों की हथेली,
कहा तो कुछ नहीं उसने , मैं हँसता, देखता हूँ ।
नदी जब भी किनारा छोड़ती है ,सूखती जाती ,
मगर उसका सफ़र हूँ मैं ,रोज़ बेहतर देखता हूँ ।
बदन पर रोशनी तो ढेर सारी,पर जिस्म नंगा है ,
संभलता, आदमी हूँ ,बेख़ौफ़ मंजर देखता हूँ ।