**ग़ज़ल**
आवाज़ नीची रख,उंगलियां मत दिखा,
यूँ टूटने बाला नहीं है हौंसला।
मंज़िले मिलती सही गर रास्ता होता,
आखिर मुसाफिर को भटकना ही पड़ा।
मत बनाते घर सही सी नींव तो रखते,
ये फैसला हमको बहुत मंहगा पडा।
आपने ज़ुल्म-ओ-सितम की इंतहा करदी,
लो थम गया है प्यार का अब सिलसिला।
अपने ही घर में अज़नबी हो गया हूँ,
बड़ी मुद्दतों से मैं नहीं खुद से मिला।
ना-मंजूर हमको शर्त जीने के लिये,
मन- मर्जियां मेरी हैं मेरा फैसला।
बहुत देखी हैं कटारें म्यान में रखीए,
है अगर औकात तो फिर नज़रें मिला।
अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया'अनुराग'डट. ३१०३२०१६/CCRAI/OLP/Doct.