तैत्तिरीय उपनिषद में एक सीख है. लिखा है- मातृ देवो भव. पितृ देवो भव. आचार्य देवो भव. अतिथि देवो भव. मेहमान की जगह माता, पिता और गुरु के बराबर. उसका सम्मान ईश्वर के बराबर. ये परंपरा हमारी संस्कृति का फ्लैगशिप है. सात समंदर पार भी मशहूर है. हिंदुस्तानी मेहमान को भगवान समझते हैं. वास्कोडिगामा भारत आया. लौटा तो यहां के किस्से बांचता. कहता, भारत के लोग बड़े दिल वाले हैं. गुड़ की डली के बिना तो पानी भी नहीं देते हैं. सदियों पुरानी इसी परंपरा की कड़ी में अब कुछ शरणार्थियों की चर्चा है. दुश्मन देश से जान बचाकर आए रिफ्यूजी. चकमा और हाजोंग. भारत ने उन्हें ठौर दी. अपनाया. अब नागरिकता भी दे रहा है.
बांग्लादेश के रिफ्यूजी अरुणाचल कैसे पहुंचे?
अरुणाचल प्रदेश. कहते हैं, सूरज की पहली किरण उतरती है वहां. लगभग 13 लाख लोगों की आबादी. एक लाख के करीब रिफ्यूजी भी रहते हैं यहां. पिछले 50 सालों से. ये सभी पूर्वी पाकिस्तान से आए थे. चटगांव से. ये पाकिस्तान के बंटवारे से पहले की बात है. अब चटगांव बांग्लादेश में है. 60 के दशक में वहां काप्ताई बांध बन रहा था. इसके कारण जमीन का बड़ा हिस्सा पानी में डूब गया.
बड़ी संख्या में लोगों को वहां से पलायन करना पड़ा. उसी समय सैकड़ों चकमा और हाजोंग भारत आए. ये लोग मिजोरम स्थित लुसाई पहाड़ी से होकर आए थे. जो लोग पीछे रह गए, वो आज भी वहीं लुसाई हिल्स के इलाकों में रहते हैं.
कौन हैं चकमा?
चकमा बौद्ध संप्रदाय से हैं. माना जाता है कि ये पश्चिमी म्यांमार के अराकान पर्वतों से निकले. फिर हिमालय की घाटी में फैल गए. इनकी अपनी भाषा है. अरुणाचल में ही नहीं, पूर्वोत्तर भारत के और कई हिस्सों में इनकी मौजूदगी है. बांग्लादेश और पश्चिमी म्यांमार में तो ये हैं ही. चटगांव से जो शरणार्थी भागकर भारत आए, उनमें ज्यादातर चकमा ही थे.
क्या है हाजोंग शरणार्थियों का इतिहास?
हाजोंग आदिवासी समुदाय से आते हैं. बांग्लादेश, पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर भारत में इनकी खासी तादाद है. इस समुदाय के ज्यादातर लोग आज भी खेती-किसानी से जुड़े हुए हैं. जो हाजोंग भारत के नागरिक हैं, उन्हें अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा मिला हुआ है. लेकिन बांग्लादेश से भागकर आए लोगों की बात अलग है. वो भारत के नागरिक नहीं थे.
चकमा और हाजोंग शरणार्थियों पर सरकार ने क्या फैसला किया है
अरुणाचल में कई अनुसूचित जनजातियां रहती हैं. बाहर से आए लोगों को वहां बसाने पर जमीन और बाकी विशेषाधिकारों का मसला खड़ा हो जाता है. स्थानीय लोग तो इसका विरोध कर ही रहे हैं. 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई करते हुए एक समय-सीमा तय की थी. सरकार से कहा था कि तीन महीने के भीतर चकमा और हाजोंग शरणार्थियों को नागरिकता दो. सरकार ने इसके खिलाफ अपील की. राज्य सरकार ने दलील दी कि इससे प्रदेश की जनसांख्यिकी बिगड़ जाएंगी. कई मूल आदिवासी जनजातियां अपने ही यहां अल्पसंख्यक बन जाएंगी. इससे उनके लिए मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी. लेकिन दलीलों का कोई असर नहीं हुआ.
कोई चारा न देखकर प्रदेश और केंद्र सरकार ने बीच का रास्ता निकालने का फैसला किया. तय किया गया है कि नागरिकता दे दी जाएगी. लेकिन उनके अधिकार सीमित होंगे. उन्हें अरुणाचल की मूल जनजातियों के बराबर अधिकार नहीं मिलेंगे. उन्हें जमीन पर मालिकाना हक भी नहीं मिलेगा. इनर लाइन परमिट मिल सकता है. इससे उन्हें नौकरी और यात्रा में सुविधा मिलेगी.