बड़े घरानो और बड़ी बड़ी हवेलियों के अपने कुछ राज होते हैं। जो समाज में रहने वाले लोगों की सोच से भी परे होते है।
, बाहर से जो हवेलियां अपने "शानो शौकत ",मान मर्यादा और संस्कारों से भरी रहती हैं ,अंदर से वही घुटन, कलंक ,खून से सनी रहती हैं।
झूठी मान मर्यादाओं के कारण उनके प्रेम को किस तरह दबाया जाता है, इसकी सच्ची कहानी जानने के लिए "आप पढ़िए प्रतिउत्तर ॽॽॽ
क्योंकि इसका जवाब तो समाज ही देगा कि कितने संस्कार हैं ,और कितनी क्रूरता भरे राज छुपाए रहती है, यह हवेलियां या फिर बड़े बड़े घराने,
"आज किसी त्यौहार से कम न था,हर तरफ उत्सव और उमंग का माहौल था, क्योंकि बहुत वर्षों की प्रतीक्षा के पश्चात् इस गांव के जमींदार के यहां पुत्र का जन्म जो हुआ था।
जमींदार भी ऐसे जिसे पूरी प्रजा एक पिता के रुप में पूजती थी, हर कोई यह हृदय से चाहता था , कि हमारे जमींदार के यहां कि उदासी समाप्त हो।
, भगवान का दिया हुआ जमींदार साहब के पास सबकुछ था, धन दौलत, सत्कर्म ,सुन्दर स्त्री संस्कारित भाई, माता पिता, नहीं थी तो केवल सन्तान,
न उनके न उनके न ही उनके भाई के बहुत मान मनौती के पश्चात् तथा कई यज्ञों अनुष्ठानों दानादि के पश्चात् तो यह शुभ अवसर आया है।
वह भी जमींदार के छोटे भाई की पत्नी सुनंदा को पुत्र हुआ। उसके विवाह को दस वर्ष बीत ही गए थे और उनके दो वर्ष पूर्व जमींदार साहब का विवाह हुआ था,
कुछ भी हो हवेली में किलकारी तो गूंज ही उठी ऐसा उत्सव कि एक दो नहीं बल्कि अनेकों वषों तक गांव वालों ने याद रखा। जमींदार अखंड प्रताप सिंह भी अपने वंश को बढ़ता देख फूले नहीं समा रहे थे।
,तभी अपने छोटे भाई रुद्र प्रताप सिंह को बुलाकर उस नवजात शिशु के नामकरण की तैयारी हेतु दूर दूर से अनेक हवेलियों कोठियों में आमन्त्रण पत्र भेजा तमाम तीर्थस्थलों से विद्वान पुरोहितों को भी आमंत्रित किया गया,
सभी ने बालक के मुख मंडल को निहारा और उसके मस्तिष्क की रेखाओं का अवलोकन कर कहा अखंड प्रताप जी यह शिशु अत्यंत प्रतिभाशाली तथा प्रकांड विद्वान बनेगा,
किन्तु स्वभाव से थोड़ा जिद्दी रहेगा इस पर हंसते हुए अखंड प्रताप की पत्नी कलावती बोली "बाप दादा कम जिद्दी हैॽजिद्दी होना इस परिवार कि धरोहर है"।
आज भी जमींदार साहब के माता पिता बिस्तर से उठने की स्थिति में नहीं है पर मजाल है अपने जिद के आगे किसी कि सुने सज संवर कर साफा पगड़ी पहनाकर बैठक में बैठे हुए हैं",
अम्मा की खांसी के कारण आवाज ठीक से न निकलती है। अब देखो कैसे सोहर गा रही है।" हिम्मत न पड़ती किन्तु ज़िद के आगे हिम्मत भी हार जाती है।
कलावती बोली यह लक्षण तो पंडित जी इस परिवार की विरासत है। सभी एक साथ हंस पड़े छोटी बहू सुनंदा को माता जी ने आवाज दी "गरीबों के लिए जो कंबल आए हैं, अपने हाथों से बांट दे,
" इस पर कलावती ने कहा "अम्मा बंट जाएंगे कंबल अब वह बिचारी कितनी देर तक खड़ी हो बांटती रहेगी मैं बंटवा दूंगी अभी उसके शरीर में इतनी ताकत नहीं है"।
तभी काशी के एक विद्वान प्रवेश करते हैं। सभी सम्मान में उठ जाते हैं, बड़े घरानों में ये सब संस्कार स्वतः रहते हैं। एक दूसरे को देखकर अपने बड़ों का अनुसरण कर के आ ही जाते हैं।
कुछ चीजें सिखाने की जरुरत नहीं होती, कुण्डली तथा नामकरण पर विचार विमर्श हुआ तथा बालक का नाम उसकी प्रखरता और चेहरे के तेज को देखकर सूर्य प्रताप सिंह रखा, किन्तु सुनंदा ने कहा "कल को शहर जाने पर स्कूल कालेज में बच्चे चिढ़ाएंगे,,,
कोई माडर्न सा नाम बताएं जिसमें सूर्य का तेज भी रहे और आधुनिक भी", सुनंदा एक माडर्न ख्याल वाली महिला थी, तब कुलगुरु ने कहा "अरुणिम कैसा हैॽ
कुण्डली के अनुरूप है और आधुनिक भी इस शिशु के भाग्य से अखंड प्रताप जी आपको भी जल्द ही पुत्र का सुख प्राप्त होगा"।
अखंड प्रताप मुस्कुरा कर बोले "मेरे लिए तो यही पुत्र हैं। ये तो आपका बड़प्पन है," पंडितों का सत्कार तथा विदाई की गई गांव वालों ने खूब छककर स्वादिष्ट भोजन किया तथा उपहार पाकर सन्तुष्ट होकर अपने अपने घर चले गए।
बालक अरुणिम धीरे धीरे सभी का चहेता तथा दुलारा हो गया।उधर जब पीढ़ियां आगे बढ़ती है , तो प्रकृति को भी अपने शाश्वत नियम का पालन करना ही पड़ता है।
अखंड प्रताप के पिता जी के सीने में एक रात जो दर्द उठा और फिर वह उठ न सके,एक माह पश्चात ही खुशियां दुःख में तब्दील हो गई यही तो नियति का चक्र है।
जो अनवरत अबाध् रुप से चलता है मनुष्य जानते हुए भी उससे पतंगों की भांति मंडराता रहता है। किसी ने कहा ज्यादा दिनों तक पोते का सुख नहीं देख सके इस पर चिढ़कर उनकी पत्नी कहती।
"मुख तो देख लिया भगवान की बड़ी कृपा है और फिर एक गहरी चिरनिंद्रा के सहारे अतीत की में खो जाती है", बुदबुदाहट में कहती हैं "।
अभी हाल ही कि बात है मैं इस घर में दुल्हन बनकर आयी थी , ठाकुर साहब ने मेरे लम्बे से घूंघट को बड़े प्यार से उठाया था । अन्तिम संस्कार की तैयारीयां शुरू हो गई थी।
,हर व्यक्ति दुःखी था, हो भी क्यों न ॽजग का नियम है कि मरने वाले व्यक्ति का सांसारिक व्यक्ति को केवल गुण ही नजर आता है ।।
कैसा भी वह अपने जीवन काल में रहें किन्तु मृतक व्यक्ति प्रशंसनीय हो जाता है।यदा कदा शायद उन्हें यह भय रहता है कि अगर बुराई करुंगा तो भूत बनकर सताएगा इससे अच्छा तारीफ ही कर दो,,,,,
,वैसे यह बात ठाकुर साहब के सन्दर्भ में नहीं है। पर एक लोकाचार जरुर है। ठाकुर साहब तो लगभग सभी के मददगार थे , किन्तु यह जरूरी तो नहीं वह मददगार मसीहा ही हों,,,,,
समाज में आज भी नियमानुसार लोग उसकी बुराईयों को उसके साथ या तो जला आते हैं ।या फिर दफन कर देते उसके बाद तारीफों के पुल बांध कर उनकी दिवाड्गत आत्मा को शांति प्रदान करते हैं।
इसी कारण रावण को भी बुराई का प्रतीक मानकर जलाते हैं। जमींदारी प्रथा ठाकुर साहब के पश्चात् समाप्त ही थी, किन्तु आज भी गांव में अखंड प्रताप एवं रुद्र प्रताप का उसी तरह सम्मान होता था,।
जैसे पहले जमींदारों की तूती बोलती थी, यह सब उनके अच्छे व्यवहार एवं अच्छे संस्कार के कारण थी। बड़े पुत्र होने के कारण अखंड प्रताप ने ही समस्त क्रिया कर्म इत्यादि किया,
अब बूढ़ी मां को भरे पूरे परिवार में भी अकेलापन महसूस होने लगा यूं तो हवेली में नौकर चाकर बहुत थे, किन्तु बूढ़ी मां के समीप पारिवारिक उपस्थिति सुबह शाम की ही रहतीं।
दिन भर खांसते गुजरता और रात बैठकर करवट लेकर बीत जाती ।कभी कभी भगवान को भी कोसती क्या जरूरत थी, ठाकुर साहब को इतनी जल्दी बुलाने की ,
कुछ दिन और साथ रहते तो भगवान क्या घट जाता, फिर मन ही मन बुदबुदाती चलो अच्छा ही हुआ कब तक बुढ़ापे के कष्ट को सहते,
बुढ़ापा तो अपने आप में एक कष्ट ही होता है ॽसमय कहां रुकने वाला था,उसका चक्र घूमता रहा एक वर्ष तक परिवार के सदस्यों ने कोई त्योहार इत्यादि ठाकुर साहब के शोक में नहीं मनायाl