माता-पिता और बुजुर्गों की सेवा करना तो हमारा धर्म है। मगर ऐसा भी नहीं है कि उनकी मृत्यु के बाद हम उन्हें भूल जाए। हमारा फर्ज है कि हम समय-समय पर अपने पितरों को याद करें। 'पितृपक्ष' एक ऐसा ही समय होता है, जब हम अपने पितरों की आत्मा की शांति और मोक्ष के लिए श्रद्धापूर्वक श्राद्ध और पिंडदान जैसे कर्मकांड करते हैं।
'पितृपक्ष' 6 सितम्बर यानि भाद्रपद महीने की पूर्णिमा को शुरू हो चुका है। ये 15 सितम्बर यानि अश्विन महीने की अमावस्या तक चलने वाला है। आपको बता दें कि मनुष्य पर मुख्य रूप से तीन तरह के ऋण होते हैं। पहला 'पितृ ऋण', दूसरा 'देव ऋण' और तीसरा 'ऋषि ऋण'।
वैसे इन सभी ऋणों में 'पितृ ऋण' को सर्वोपरि माना जाता है। पितरों में सिर्फ माता-पिता ही नहीं बल्कि हमारे परिवार के बुजुर्ग और पूर्वज भी आते हैं। पितृपक्ष के दौरान ब्राह्मण को भोजन करवाना, पिंड दान करना, शुभ कार्य न करना आदि बातें तो आपको पता ही होंगी।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि पितृपक्ष की शुरुआत कब हुई थी? कहां पिंडदान करना सबसे पुण्यकारी होता है और क्यों? शायद नहीं। तो फिर देर किस बात की है। आइए आज हम आपको बताते हैं पितृ पक्ष से जुड़ी कथाओं और मान्यताओं के बारे में।
पूर्वजों को शांति
पितृपक्ष के दौरान श्राद्ध करने के साथ ही पिंड दान और तर्पण करने से पूर्वजों की सोलह पीढ़ियों को शांति और मुक्ति की प्राप्ति होती है। ऐसा करना व्यक्ति को पितृऋण से भी मुक्ति दिलवाता है। इसका खासा महत्व है।
पिंडदान का महत्व
हिन्दू धर्म के पिंडदान को मोक्ष प्राप्ति का सबसे आसान और सीधा तरीका माना जाता है। देशभर में कई धार्मिक स्थलों में श्रद्धापूर्वक पिंडदान किया जाता है। मगर इनमें से 'गया' में किया गया पिंडडान सबसे ज्यादा फलदायी माना जाता है।
राम ने किया था पिंडदान
बिहार के फल्गु तट पर स्थित 'गया' में पिंडदान करना यूं ही सबसे पुण्यकारी नहीं माना जाता है। मान्यता है कि भगवान राम ने पत्नी सीता के साथ पिता दशरथ की मौत के बाद 'गया' में ही उनकी आत्मा की शांति के लिए पिंडदान किया था।
कर्ण की कहानी
सूर्यपुत्र कर्ण का भी श्राद्धपक्ष से संबंध है। महाभारत के युद्ध में मृत्यु के बाद कर्ण जब स्वर्ग में गए तो उन्हें सोने-चांदी के गहने आदि दिए गए, लेकिन खाने को कुछ नहीं दिया गया। उन्होंने जब भगवान इंद्र से इस संबंध में पूछा तो जवाब मिला,"आपने ताउम्र सोना आदि ही दान किया है, अपने पूर्वजों का कभी श्राद्ध नहीं किया।" कर्ण ने कहा कि उन्हें पता ही नहीं था उनके पूर्वज कौन थे? इसलिए उन्होंने ऐसा नहीं किया।
कर्ण को मिला दूसरा मौका
कर्ण को अपनी गलती सुधारने के लिए 15 दिन के लिए एक बार फिर धरती पर भेजा गया। कर्ण ने अपने पितरों को याद करते हुए उनका श्राद्ध किया। यही वजह है कि आज भी श्राद्ध 15 दिन के लिए मनाए जाते हैं।
यहां पहला पिंडदान
भले ही बिहार के 'गया' में पिंडदान करने का सबसे अधिक महत्व माना जाता है। मगर जब बात पहले पिंडदान की आती है तो जबलपुर नर्मदा के लम्हेटाघाट से कुछ दूरी पर स्थित इंद्रगया का नाम सामने आता है। कहा जाता है कि यहां खुद देवराज इंद्र ने अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति और मोक्ष के लिए पिंडदान किया था।
इतना ही नहीं पहला श्राद्ध भी नर्मदा के तट पर ही हुआ था। यह खुद पितरों ने ही किया था।
निशान मौजूद
कहा जाता है कि यहाँ स्थित 'गया' कुंड में आज भी देवराज इंद्र के वाहन ऐरावत हाथी के पैरों के निशान मौजूद हैं। इसके अलावा धरती के पहले राजा 'राजा मनु' द्वारा भी अपने पूर्वजों का पिंडदान यहां करने की बात भी कही जाती हैं।
ब्राह्मण भोज क्यों?
श्राद्ध के दौरान ब्राह्मण भोज का बहुत अधिक महत्व होता है। लेकिन ऐसा क्यों? दरअसल माना जाता है कि ब्राह्मणों के साथ हमारे पूर्वज भी वायु रूप में मौजूद होते हैं। ब्राह्मणों के भोजन करने से वो भी तृप्त हो जाते हैं। साथ ही अपने वंशजों को आशीर्वाद भी देकर जाते हैं।
12 बजे के बाद श्राद्ध
श्राद्ध यानि श्रद्धा से अर्पित किया हुआ। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पूर्वजों को मुक्ति मिलती हैं। पितृपक्ष के दौरान सूर्य दक्षिणायन होता है और माना जाता है कि यह पूर्वजों को मुक्ति का मार्ग भी दिखाता है। लेकिन इसके लिए दोपहर में 12 बजे के बाद श्राद्ध किया जाना चाहिए। सुबह किया गया श्राद्ध पूर्वजों तक पहुंच ही नहीं पाता है।
कौओं का महत्व
श्राद्ध के दौरान पहला भाग कौओं को दिए जाने की प्रथा से तो आप परिचित होंगे ही। माना जाता है कि कौओं में हमारे पूर्वज बसते हैं और वो हमसे खाना लेने आते हैं। यदि उन्हें खाना न मिले तो वो नाराज भी हो जाते हैं। इसलिए श्राद्ध के दौरान कौओं को खाना देने का इतना अधिक महत्व होता है।
ये थी पितृपक्ष से जुड़ी कुछ मान्यतायें।
साभार: विट्टीफीड .कॉम