मैं बहुत भुलक्कड़ हूं. लेकिन कुछ चीज़ें जिंदगी में इतनी जरूरी हैं कि उनको भूलना मुमकिन नहीं हो पाता. सुबह-सुबह डस्टबिन उठाकर घर के बाहर रखने की आदत भी ऐसी ही है. सुबह 7 बजे एक लड़का ‘कूड़ा डाल दो’ की हांक लगाता हुआ अपने ठेले के साथ कॉलोनी से गुजरता है. जिन घरों के बाहर पहले से डस्टबिन रखा है, उनका कूड़ा उठाकर अपने ठेले में उड़ेल लेता है. जिन्होंने घर के बाहर डस्टबिन नहीं रखा होता, वो उसकी हांक सुनकर कूड़ा ले आते हैं.
कुछ ऐसे भी हैं, जो घर की घंटी बजाए बिना कूड़ा बाहर नहीं लाते. महीने के आखिर में एक औरत आकर कूड़ा ठिकाने लगाने का पैसा जमा करती है. उम्र से लगता है कि शायद उस लड़के की मां होगी. पहले 50 रुपये लेती थी, अब 80 लेती है. होली-दीवाली पर मिठाई और बख्शीश भी लेने आती है. मुसलमान है, लेकिन अपने ग्राहकों के धर्म के मुताबिक बख्शीश का मौका तय करती है. इसीलिए होली-दीवाली चुनती है. मैं उसकी बहुत शुक्रगुजार हूं. हालांकि ये बात मैंने कभी उसको नहीं बताई. मैंने कभी ज़ाहिर भी नहीं किया कि उसका होना मेरे लिए कितना सुकून भरा है. मैं उसको ये भी नहीं बताऊंगी कि अगर 80 की जगह वो 180 भी वसूलना शुरू कर दे, तब भी मेरे पास उसकी सर्विस लेने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं होगा. असल में उसके बिना एक दिन भी मेरा गुजारा नहीं चल सकता है.
हमारे कूड़ेदान में क्या-क्या होता है?
आप जहां कभी भी बैठकर ये पढ़ रहे हैं, बस एक बार आंख मूंदकर अपने घर का डस्टबिन याद कीजिए. सब्जियों के छिलके, कागज, पॉलिथिन, प्लास्टिक की बोतलें, गत्ता, इस्तेमाल किया गया सैनिटरी पैड, बच्चों के डायपर्स, खाली शैंपू की बोतलें, फ्रिज का बचा खाना, बीयर और डायट कोक की कैन्स, यूज्ड कॉन्डम, दवाइयां, बाथरूम का टूटा मग्गा, फूटे ग्लास से निकले कांच के टुकड़े, शेविंग में इस्तेमाल हो चुकी ब्लेड, सड़ी हुई सब्जियां, मीट और चिकन की बोटियों से बची हड्डियां और भी न जाने क्या-क्या. एक डस्टबिन के अंदर अलग-अलग तरह का कचरा. एक ही कूड़ेदान में गीली सब्जी और फ्यूज बल्ब, सब जगह पा जाते हैं. हरे और नीले रंग का अलग-अलग डस्टबिन घरों और दफ्तरों में नजर नहीं आता.
न ही हमको पता है कि कौन-कौन सी चीजें रिसाइकल होती हैं. जो कूड़ा जमा करते हैं और डंप करने ले जाते हैं, उनको भी नहीं पता होता. हर तरह का कूड़ा एक साथ फेंका जाता है. पूरा समाजवाद. रिसाइकल करने की समझ हमारे अंदर अभी पनपी ही नहीं है. जाहिर है, जब समझ ही नहीं है तो सिस्टम क्या खाक बनेगा. बच्चों को स्कूल में सिखाते हैं कि फलां चीज रिसाइकल हो सकती है. कि बायोडिग्रेडेबेल वेस्ट क्या होता है. बच्चे क्लास प्रॉजेक्ट में अपना ज्ञान उड़ेल देते हैं. परीक्षा में लिखकर नंबर ले आते हैं. बस. उस ज्ञान को अमल में लाने की आदत हमने बच्चों को सिखाई ही नहीं. इसका नतीजा ये हुआ कि कूड़े के प्रबंधन की जो शुरुआत हमसे, हमारे घरों से अंदर होनी चाहिए थी, वो नहीं हो सकी.
कहां से निकलता है, कहां पहुंचता है कूड़ा
हमारे घरों से निकलकर कूड़ा मुहल्ले के सबसे नजदीकी डंपिंग जोन पर पहुंचता है. सड़क किनारे जिस जगह पर आपको गायों और सांड़ों की सबसे ज्यादा तादाद नजर आए, समझ लीजिए वही है डंपिंग जोन. वैसे वहां पहुंचने से 50 मीटर पहले ही हवा का झोंका अपने साथ एकमुश्त सड़ांध लेकर आएगा और आपके नथुनों में घुसकर आपको अपने होने का संकेत दे जाएगा. भिनभिनाती हुई मक्खियां इस डंपिंग जोन की खूबसूरती पर चार चांद लगा रही होंगी. आपके पैरों की रफ्तार बढ़ जाएगी और आप नाक पर हाथ रखे, सांस रोके फटाफट वहां से गुजर जाएंगे. नगरपालिका/नगर निगम के कर्मचारी इन डंपिंग जोन्स पर पड़ा कूड़ा अपनी गाड़ियों में लादते हैं. ये गाड़ियां कूड़े को महाडंपिंग साइट पर डाल आती हैं. इस महासाइट को लैंडफिल स्पॉट के नाम से पुकारा जाता है.
महानगरों में कूड़े का सिस्टम
मुंबई
मुंबई देश का सबसे बड़ा महानगर. यहां कूड़ा भी सबसे ज्यादा जमा होता है. मुंबई शहर एक दिन में 9,600 टन कूड़ा पैदा करता है. यहां 3 लैंडफिल साइट्स हैं- देवनार, मुलुंड और कांजुरमार्ग. इन सबका जिम्मा बृहन्मुंबई महानगरपालिका के कंधों पर है. मुंबई के पास कूड़े के ट्रीटमेंट का कोई प्लांट नहीं है. सारा कचरा एकसाथ फेंक दिया जाता है. रिसाइक्लिंग की कोशिश भी नहीं हो रही है.
दिल्ली
दिल्ली में 3 लैंडफिल ग्राउंड्स हैं. गाजीपुर, ओखला और भलस्वा. गाजीपुर पूर्वी दिल्ली नगरपालिका की जिम्मेदारी है. ओखला को दक्षिणी दिल्ली म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन संभालता है. भलस्वा साइट उत्तरी नगरपालिका के जिम्मे है. गाजीपुर में जो 45 मीटर ऊंचा कूड़े का ढेर है, वो ऐसा ही एक लैंडफिल स्पॉट है. रिहायशी इमारतों में एक मंजिल की ऊंचाई करीब 3 मीटर होती है. इस लिहाज से गाजीपुर में जो कूड़े का अंबार है, वो 15 मंजिला इमारत के बराबर है. गाजीपुर में तीन से साढ़े तीन हजार मीट्रिक टन कूड़ा फेंका जाता है. रोजाना यहां 600 से 650 ट्रक कूड़ा फेंका जाता है. नगरपालिका के बजट में सैनिटेशन के लिए जो रकम दी जाती है, उसका लगभग 85 फीसद हिस्सा कूड़े को लाने-ले जाने में ही खर्च हो जाता है.
इसकी अधिकतम सीमा 15 मीटर तय की गई थी. नियम बनाए गए हैं, ताकि उन्हें तोड़ा जा सके. बाकी हर चीज की तरह लैंडफिल साइट्स से जुड़े नियमों को भी खुलकर ठेंगा दिखाया जाता है. 70 एकड़ में फैला यह लैंडफिल 1984 में शुरू हुआ था. यहां करीब 1 करोड़ 20 लाख टन कूड़ा जमा है. 2002 में इसकी अधिकतम क्षमता पूरी हो गई थी. उसके बाद से ही नगरपालिका किसी वैकल्पिक जगह की तलाश में थी, लेकिन हुआ कुछ नहीं. पिछले हफ्ते इसका एक हिस्सा नहर में गिर गया और 2 लोग मारे गए. जैसा कि होता है, हादसे के बाद कुछ समय के लिए प्रशासन की मुस्तैदी बढ़ जाती है. इसी परंपरा को निभाते हुए अब नगरपालिका पूरी शिद्दत से कूड़ा फेंकने की दूसरी जगह तलाश कर रही है. चूंकि गाजीपुर में जुम्मा-जुम्मा चार दिन पहले बड़ा हादसा हुआ है, इसीलिए इस पर ज्यादा पंक्तियां खर्च की हैं.
बेंगलुरू
बेंगलुरू शहर में रोजाना लगभग साढ़े तीन हजार टन कूड़ा पैदा होता है. जनता के दबाव और विरोध के बाद 2013 के बाद से यहां कूड़ा किसी लैंडफिल में जमा नहीं होता है. हां, 10 प्रोसेसिंग यूनिट्स जरूर हैं. इनमें से 7 को बेंगलुरु नगरपालिका (BBMP) संभालती है, जबकि बाकी तीन पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP) मॉडल में चलते हैं. BBMP के प्राइवेट कॉन्ट्रैक्टर्स शहर से कूड़ा जमा करते हैं और उसे प्रोसेसिंग यूनिट ले जाते हैं. कचरे को यूनिट ले जाने से पहले इसकी छंटाई की जाती है. गीला, सूखा और खतरनाक किस्म का कूड़ा अलग किया जाता है. ये प्रोसेसिंग यूनिट्स 2,200 टन कूड़े को कंपोस्ट में तब्दील करने की क्षमता रखते हैं.
कोलकाता
कोलकाता में हर दिन करीब 4,000 मीट्रिक टन कचरा जमा होता है. शहर में दो लैंडफिल हैं- एक शहर के पूर्वी छोर धापा में और दूसरा पश्चिमी हिस्से गार्डन रीच में. कोलकाता नगरपालिका में कूड़े के प्रबंधन के लिए सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट नाम का अलग विभाग है. प्राइवेट कॉन्ट्रैक्टर्स की सेवाएं भी ली जाती हैं. गार्डन रीच लैंडफिल में एक कम्पोस्ट प्लांट भी है, जो कि रोजाना 500 मीट्रिक टन कचरे को प्रोसेस कर सकता है. 144 वॉर्ड्स में से मात्र 7 ऐसे हैं, जहां कूड़े को अलग-अलग किया जाता है.
चेन्नै
आंकड़ों के मुताबिक, चेन्नै शहर हर दिन लगभग 9,600 टन कूड़ा पैदा करता है. यहां तीन लैंडफिल हैं- पेरुनगुडी, कोडुनगाइयुर और तिरुवोट्टियुर. यहां चेन्नै नगरपालिका निजी कॉन्ट्रैक्टर्स के साथ मिलकर कूड़ा जमा करने और इससे जुड़े बाकी कामों को पूरा करती है. ज्यादातर कूड़ा जला दिया जाता है. कुछ समय पहले ही चेन्नै में वेस्ट टु एनर्जी प्लांट शुरू हुआ है. ये प्लांट हर दिन 300 मीट्रिक टन कूड़े को ट्रीट कर उसे कंपोस्ट में बदल सकता है. 40 माइक्रोन्स से कम की प्लास्टिक शीट्स को टुकड़ों में कतर दिया जाता है और उन्हें सड़क बनाने में इस्तेमाल किया जाता है.
दिल्ली में क्या हो रहा है
गाजीपुर लैंडफिल में हुए हादसे के बाद नगरपालिका प्रशासन ने हाथ-पैर हिलाने शुरू किए. LG ने आदेश दिया कि अब गाजीपुर को कूड़े से निजात दे दी जाए. मतलब अब वहां डंपिंग नहीं होगी. पूर्वी दिल्ली नगरपालिका ने फैसला किया कि फिलहाल पूर्वी दिल्ली का सारा कूड़ा मौजपुर के पास घोंडा गुजरान के हवाले कर दिया जाए. नैशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (NGT) ने इस प्रस्ताव को इनकार कर दिया. NGT का कहना है कि ये इलाका यमुना के पास है और पर्यावरण के लिहाज से काफी संवेदनशील है. ये सिस्टम कुछ ऐसा है कि पहले नगरपालिका एक जगह तय करती है. इस पर NGT की हरी झंडी मिलने के बाद ही DDA वो जगह नगरपालिका को सौंपता है.
इससे पहले EDMC ने रानीखेड़ा में तात्कालिक लैंडफिल बनाने का फैसला किया था. लेकिन वहां रहने वाले ऐसा होने नहीं दे रहे. रानीखेड़ा के लोग अपने इलाके में लैंडफिल बनाए जाने का विरोध कर रहे हैं. लोग कह रहे हैं कि चाहे जो हो जाए, अपने इलाके में लैंडफिल नहीं बनने देंगे. गाजीपुर के अलावा ओखला और भलस्वा में भी कूड़े की डंपिंग बंद की जा चुकी है. अब हालत ये है कि कूड़े से भरी गाड़ियां खड़ी हैं, लेकिन कूड़ा फेंकने की जगह ही नहीं है. पुरानी फेंकने लायक नहीं रहीं, नई मिल नहीं रही हैं. दिक्कत ये भी है कि अगर कहीं लैंडफिल न बने, तो कूड़े से छुटकारा कैसे मिलेगा. कहीं तो जाएगा ये अथाह कूड़ा. कुछ तो करना होगा इस कूड़े का. इसे ठिकाने नहीं लगाया गया तो हमारे घरों में कूड़े का अंबार लग जाएगा.
इस इलाके में नहीं, तो उस इलाके में क्यों?
घोंडा गुजरान उत्तर पूर्वी लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र का हिस्सा है. भारतीय जनता पार्टी (BJP) के मनोज तिवारी यहां से सांसद हैं. जब स्थानीय लोगों ने यहां लैंडफिल बनाए जाने का विरोध किया, तो उन्हें अपने सांसद से भी समर्थन मिला. मनोज तिवारी ने कहा कि यहां लैंडफिल नहीं बनेगा. उत्तर पश्चिमी दिल्ली लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से BJP के सांसद उदित राज रानीखेड़ा के लोगों का साथ दे रहे हैं. उन्होंने कहा कि कूड़ा रानीखेड़ा में न डंप किया जाए, भले ही कहीं और क्यों न फेंक दिया जाए. सवाल है कि घोंडा गुजरान में न डंप करें, रानीखेड़ा में न डालें, तो किसी और जगह ने क्या बिगाड़ा है.
मतलब अगर मेरे इलाके का सांसद या विधायक उतना प्रभावी नहीं है, तो मेरा इलाका लैंडफिल बनाने के लिए माकूल है? ये क्या बात हुई! रानीखेड़ा के लोग सड़क पर उतर आए हैं. कह रहे हैं कि गंदगी होगी. बदबू फैलेगी. बच्चे बीमार होंगे. हमारी पूरी हमदर्दी है उनसे. लेकिन फिर ये सवाल भी तो है कि कूड़ा किसी एक का तो है नहीं. पूरी दिल्ली धड़ल्ले से कूड़ा पैदा करती है. राहत इंदौरी साहब से माफी मांगते हुए इसे यूं समझ सकते हैं, ‘सभी के घरों का कूड़ा शामिल है इस लैंडफिल में, किसी एक के बाप का थोड़ी है.’ गंदगी फैलती है, हर कहीं फैलेगी. बदबू फैलती है, हर जगह फैलेगी. ऐसा तो है नहीं कि दूसरे इलाके में गंदगी से गुलाब की खुशबू आने लगेगी.
गाजीपुर और ऐसी तमाम जगहें जीने लायक नहीं हैं
कूड़ा आपके लिए डस्टबीन तक सीमित होगा. ये गाजीपुर जैसी जगहों की पहचान है. गाजीपुर का नाम याद आते ही कूड़े का पहाड़ याद आता है. इस पहाड़ पर मंडराते चील-कौए आपको दूर से ही नजर आएंगे. आसमान धुंधला दिखता है. दूर तक सड़ांध तैरती रहती है. गंध इतनी गंदली होती है कि जी मिचलाने लगता है. कूड़े को जलाने से जो दमघोंटू धुआं निकलता है, वो भी आपको हर ओर मंडराता मिलेगा. आपके लिए गाजीपुर कहीं आते-जाते रास्ते में पड़ने वाली एक जगह का नाम हो सकता है. सो आपके पास नाक बंद कर तेजी से गुजर जाने, बाइक की रफ्तार बढ़ाकर आगे बढ़ लेने या गाड़ी का शीशा चढ़ाकर इस बदबू से निजात पाने जैसे तरीके हैं.
यहां रहने वालों को ये सहूलियत मयस्सर नहीं. उन्हें यहीं रहना है. सुबह जगने से लेकर रात के सोने तक. सर्दी, गर्मी, बरसात. शादी-ब्याह. पर्व-त्योहार. सब यहीं बिताने हैं. जिन-जिन इलाकों में लैंडफिल है, उन इलाकों में रहने वाले लोगों का जीना मुहाल है. वहां प्रॉपर्टी की कीमतें काफी गिर जाती हैं. आप सोचकर देखिए. आपका कोई रिश्तेदार अगर ऐसे इलाके में रहता हो, तो क्या आप उसके पास जाना चाहेंगे? मजबूरी में चले भी गए, तो वहां कितनी देर बैठ सकेंगे? ऐसी जगह पर अपनी बेटी-बहन का रिश्ता तय करना चाहेंगे? आपके घर के डस्टबिन में पड़े कूड़े को अगर दो दिन तक खाली न किया जाए, तो उससे कैसी गंदी भभकती गंध आएगी, पता है? फिर इन लैंडफिल्स में तो मछली और मीट बाजार की गंदगी भी शामिल होती है. मरे हुए जानवरों का अवशेष. सब का सब यहीं शरण पाता है. सोचिए, कैसी दिल दहला देने वाली बदबू आती होगी इन इलाकों में.
क्या है नियम
म्यूनिसिपल सॉलिड वेस्ट्स 2000 में नियम हैं. बताया गया है कि लैंडफिल्स बनाने के लिए ऐसी जगह को चुना जाए जिसके आस-पास कोई रिहायशी इलाका न हो. यानी इंसानी आबादी से दूर बनाए जाएं. जाहिर है, ये नियम बस कहने को है. नियम बनाने वाले सोचते हैं आदर्शवाद एक चिड़िया का नाम है. नियम का पालन करने वाले सोचते हैं आदर्शवाद किस चिड़िया का नाम है. इस बनाने और सोचने के चक्कर में वाट जनता की लगती है.
क्या खाकर बनेंगे हम स्वीडन जैसे
स्वीडन जैसे देशों के साथ एक पंक्ति में नाम आए, इस लायक भी नहीं हैं हम. स्वीडन अपने 99 फीसद कूड़े को ट्रीट करता है. जो रिसाइकल हो सकता है, उसे रिसाइकल किया जाता है. बाकी कूड़े को जलाकर उससे बिजली पैदा होती है. 2015 में यहां 23 लाख टन कूड़े की बिजली बनाई गई. इस प्रक्रिया में जो धुआं निकलता है, वो भी ट्रीटेड होता है. वातावरण को प्रदूषित नहीं करता. सफाई की आदत वहां बचपन से सिखाई जाती है. पिछले कुछ दशकों में यहां रिसाइक्लिंग के क्षेत्र में ऐसी क्रांति हुई है कि पूछिए मत. 1975 में यहां कुल घरेलू कूड़े का केवल 38 फीसद हिस्सा रिसाइकल होता था. 42 सालों में देखिए स्वीडन कहां से कहां पहुंच गया.
स्वीडन में नियम है कि रिसाइक्लिंग स्टेशन रिहायशी इलाकों के 300 मीटर की परिधि में होंगे. ज्यादातर लोग अपने घर में ही अलग-अलग तरह के कूड़े को बांट देते हैं. जैविक कूड़ा एक डस्टबीन में. अजैविक कूड़ा अलग. रिसाइकल होने वाला अलग. लोग अखबार, प्लास्टिक, धातु, कांच, बिजली से चलने वाले उपकरण, बल्ब, बैटरी सब तरह का कूड़ा अलग करना जानते हैं, करते हैं. फिर बाहर बिल्डिंग के नीचे रखे अलग-अलग कूड़ेदानों में व्यवस्थित तरीके से कूड़ा डाल देते हैं. यहां करीब 50 फीसद कचरे से बिजली पैदा होती है. सरकार रिसाइक्लिंग को और बढ़ावा देने की कोशिश कर रही है.
स्वीडन और नॉर्वे जैसे देश अपने कूड़े संग क्या कर रहे हैं
यहां रिसाइक्लिंग पर काफी फोकस किया जा रहा है. लोग पर्यावरण के लिए बहुत संजीदा हैं. अखबारों की लुगदी बनाकर उन्हें फिर से कागज बना दिया जाता है. बोतलों को दोबारा इस्तेमाल में लाया जाता है या फिर उन्हें पिघलाकर नई चीजें बना ली जाती हैं. प्लास्टिक के डब्बों को भी रिसाइकल किया जाता है. खाने को कंपोस्ट में बदल दिया जाता है. प्रदूषित पानी को साफ कर फिर पीने लायक बनाया जाता है. खास गाड़ियां शहर भर से इलेक्ट्रॉनिक्स और बाकी खतरनाक बेकार चीजों को जमा करती हैं. दवा की दुकान वाले बची दवाओं को ले लेते हैं. अगर किसी का टीवी, रेफ्रिजरेटर या फर्निचर जैसा सामान खराब हो जाता है तो वे उसे रिसाइक्लिंग सेंटर पर दे आते हैं.
स्वीडन बेहद प्रभावी तरीके से अपने कूड़े का प्रबंधन करता है. अपने यहां कचरे की कमी होने पर स्वीडन ने 2014 में कई अन्य देशों से 27 लाख टन कूड़ा भी आयात किया. यूरोप के कई देश स्वीडन को अपने कूड़े का निर्यात करते हैं. यहां केवल एक फीसद कूड़ा ऐसा बचता है जिसे डंप करने की नौबत आती है. यहां सरकार कोशिश कर रही है कि कंपनियां ऐसे सामान बनाएं जो कि लंबे समय तक चल सकें. इसके अलावा रिपेयर करवाने पर सब्सिडी देने की भी योजना बनाई जा रही है. स्वीडन के कई शहरों ने अपने यहां सार्वजनिक कूड़ेदानों में ऐसे लाउडस्पीकर्स लगवाए हैं जिनसे बहुत सुकून देने वाला संगीत बजता रहता है. ये सब इसलिए ताकि लोगों को और ज्यादा रिसाइक्लिंग करने की प्रेरणा दी जा सके.
आगे आने वाले समय में क्या होगी भारत की स्थिति
PwC-एसोचैम ने अपने एक रिसर्च में बेहद डरावनी तस्वीर दिखाई है. रिसर्च का कहना है कि हमारे यहां कचरे के प्रबंधन की जो हालत है उसकी वजह से 2050 तक हमें 88 स्क्वेयर किलोमीटर का इलाका लैंडफिल के लिए रिजर्व करना होगा. लैंडफिल में इस्तेमाल की गई जमीन कम से कम आधी सदी तक किसी इस्तेमाल में नहीं लाई जा सकती. ये इलाका लगभग नई दिल्ली नगरपालिका क्षेत्र जितना बड़ा होगा. 2050 तक भारत की करीब 50 फीसद शहरों में रहने लगेगी.
शहरों में पैदा होने वाला कूड़ा सालाना पांच फीसद के हिसाब से बढ़ता जाएगा. अगर कूड़े का ठीक तरह से प्रबंधन न किया जाए, तो पर्यावरण पर इसका डरावना असर पड़ता है. इसकी वजह से हवा, पानी और मिट्टी सब प्रदूषित होते हैं. इसके कारण सेहत पर बहुत गंभीर असर पड़ता है. इसी रिसर्च के मुताबिक, भारत में हर साल करीब 4 करोड़ 30 लाख सॉलिड वेस्ट जमा किया जाता है. इनमें से लगभग 1 करोड़ 9 लाख टन को ट्रीट किया जाता है, जबकि 3 करोड़ टन से ज्यादा कूड़ा सीधे लैंडफिल में डंप कर दिया जाता है. कूड़ा सड़ता है और रिसकर भूमिगत जल में मिल जाता है. इस कचरे के कारण पैदा हुआ प्रदूषण हवा और मिट्टी में भी रच-बस जाता है. लैंडफिल के आस-पास के इलाकों में रहने वालों के अंदर सांस, त्वचा और पेट संबंधी बीमारियां ज्यादा पाई जाती हैं. फूड पॉइजनिंग के केस भी काफी होते हैं.
सारी ऊर्जा कूड़ा जमा करने और उसे डंप करने में बर्बाद हो रही है
स्वीडन और नॉर्वे जैसे देश ही नहीं, श्रीलंका और भूटान जैसे पड़ोसी देश भी कई मायनों में हमसे बेहतर कर रहे हैं. श्रीलंका अपने कचरे को अलग-अलग करता है. उन्हें जैविक और अजैविक श्रेणी में बांटता है. भूटान तो पर्यावरण के प्रति काफी संजीदा है. लोग गंदगी फैलाना ही नहीं चाहते. भारत में ज्यादातर लोगों के अंदर ऐसी तमीज ही नहीं है. एक तो हम मेहनत नहीं करना चाहते और दूसरा हमारा सिस्टम भी बेहद काहिल है. जागरूकता तो न के बराबर है. कूड़े के प्रबंधन और इसके निपटारे के हमारे सिस्टम में ही बहुत झोल है. नगरपालिकों की सारी ऊर्जा कूड़ा जमा करने और उसे कहीं पटकने में ही खर्च हो रही है.
हो सके तो कबाड़ी और कूड़ा बीनने वालों को शुक्रिया कह दीजिएगा
कूड़ा कैसे कम किया जाए, इसके साथ क्या बेहतर किया जाए, ये सारी चीजें हमारे फोकस में ही नहीं हैं. रिसाइक्लिंग जैसी चीजों का भी हम बिल्कुल लोड नहीं लेते. ज्यादातर लोगों को तो ये भी नहीं पता होता कि कौन सी चीज रिसाइकल हो सकती है और कौन सी नहीं. नियम या तो हैं नहीं और हैं भी, तो उनके पालन में कोई सख्ती नहीं दिखाई जाती. इसकी वजह से सूखे और गीले कूड़े को अलग करने जैसी बुनियादी मेहनत भी लोग नहीं करते हैं. वो तो भला हो कबाड़ियों का. थोड़े पैसे मिलने के लालच में हम उनको चीजें बेच देते हैं और इसी बहाने वो चीजें रिसाइकल हो जाती हैं. धन्यवाद देना हो तो उन लोगों का भी दीजिए जो कि अपनी-अपनी बोरी थामे कूड़े की खाक छानते रहते हैं और कुछ काम की चीजें निकाल लेते हैं. पर्यावरण उनका भी एहसानमंद रहेगा. जो चीज हम नहीं कर रहे, हमारा सिस्टम नहीं कर रहा, उसे ये लोग कर रहे हैं.
अगर हमने अपनी आदतों और अपने सिस्टम में सुधार नहीं किया, तो एक दिन कूड़े को फेंकने की जगह ही नहीं मिलेगी. एक तो बढ़ती आबादी और उस पर इस आबादी का बढ़ता कूड़ा, इसे डंप करने की जगह कहां से लाएंगे. वैसे भी वेस्ट मैनेजमेंट के मामले में हम दो-तीन दशक पीछे ही चल रहे हैं. हमें बुनियादी चीजों से शुरुआत करनी है. असर दिखे, इस स्तर तक पहुंचने की राह अभी दिल्ली दूर है.
साभार:द लल्लनटॉप