8 सितंबर, 2017 को गुड़गांव के रायन इंटरनेशनल स्कूल में प्रद्युम्न ठाकुर नाम के एक बच्चे की हत्या हो गई. इल्ज़ाम लगा स्कूल में बस कंडक्टर अशोक पर. पुलिस जांच कर रही है, जिससे बच्चे का परिवार संतुष्ट नहीं है. इसलिए बच्चे के पिता विशाल ठाकुर अपने बच्चे की मौत का दर्द एक तरफ रखकर पुलिस स्टेशन से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक के चक्कर लगा रहे हैं. ये सब हम इसलिए जानते हैं क्योंकि मीडिया लगातार इस मामले को कवर कर रहा है. मीडिया कवरेज ने यकीनन ठाकुर परिवार की मदद की है. लेकिन यही मीडिया ठाकुर परिवार के जी का जंजाल भी बन गया है.
एक वीडियो दो दिनों से सोशल मीडिया पर चल रहा है. इसमें प्रद्युम्न के पिता विशाल ठाकुर एक चैनल के लाइव प्रोग्राम में अपने घर से अपनी बात कह रहे थे. ये एक ‘स्टैंडर्ड’ प्रक्रिया है, जिसके लिए पत्रकारों को ट्रेनिंग मिली होती है. लेकिन वायरल हुए 1 मिनट 11 सेकंड के इस वीडियो में हर वो चीज़ होती है, जो नहीं होनी चाहिए. न सिर्फ पत्रकारिता के लिहाज़ से, बल्कि उस लिहाज़ से भी जिसे हम ‘कॉमन डीसेंसी’ कहते हैं. माने सामान्य शिष्टाचार. आगे बात हो, इस से पहले आप वीडियो देख लीजिए –
विशाल किसी तरह खुद को संभाले हुए लोगों से सपोर्ट की अपील कर रहे हैं, ताकि कुछ दिन पहले मार दिए गए उनके सात साल के बच्चे को न्याय मिल सके. इतने में ही एक पत्रकार विशाल की शर्ट पर लगा लैपल माइक निकालने की कोशिश करती है, जिसे फुर्ती से रोक लिया जाता है. इसके बाद उस पत्रकार की दूसरे पत्रकार से बहस शुरू हो जाती है, जिसकी आवाज़ हम सुन भी सकते हैं.
लेकिन असल बदतमीज़ी इसके बाद शुरू होती है. विशाल तुरंत किसी ज़रूरी मुलाकात के लिए जाना चाहते हैं और पत्रकार हर हाल में बाइट चाहती है. एक दूसरे सज्जन जो शायद विशाल के परिचित हैं, कहते हैं कि बाद में टाइम मिल जाएगा, लेकिन पत्रकार अड़ी रहती है. विशाल समझाते हैं कि वो रुक नहीं सकते. पत्रकार जाते हुए विशाल का हाथ पकड़कर उन्हें रोकने की कोशिश करती है. विशाल की मजबूरी और पत्रकार की बदतमीज़ी दोनों मिल कर ऐसा दृश्य बनाते हैं, जिसे देख कर आप सिर पकड़ लेते हैं.
पत्रकार वहां एक स्टोरी के लिए गई है, लेकिन वो अपने सब्जेक्ट, माने विशाल के पिता और उनकी ट्रैजडी को लेकर कतई संवेदनशील नहीं है. आखिरी रात को जागकर असाइनमेंट पूरा करने वाले बच्चों की तरह वो बाइट लगभग छीन कर ले जाना चाहती है, ताकि अपने पैकेज में चेंप सके. उसमें जितना भी आदर का भाव है, वो उस शख्स के लिए है, जो फोन के दूसरी तरफ है, जो शायद उसका सीनियर है. विशाल को अपना सबजेक्ट मानने में उस पत्रकार ने उनके इंसान होने को नकार दिया है. ये बर्ताव हमारे बताने से खराब साबित नहीं होगा. ये उस दर्जे की बद्तमीज़ी है जो अपनी जगह खुद खारिज है.
मीडिया का काम है ‘स्टोरी’ करना. वो कहानियां लोगों तक पहुंचाना जिनसे उनकी ज़िंदगी पर फर्क पड़ता है. इसके लिए शिद्दत की ज़रूरत होती है. बदतमीज़ी की नहीं.
कुछ मेहनती लोगों ने इस पत्रकार और न्यूज़ चैनल का नाम पता कर लिया है. तबसे उन्हें गरियाया जा रहा है. इस चैनल के पत्रकार इससे पहले भी अपने उतावलेपन के सबूत वायरल कर चुके हैं (एक उदाहरण का लिंक ये रहा). लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं है कि भारतीय मीडिया की सारी मुसीबतें इस एक चैनल की वजह से हैं. थोड़े-बहुत फर्क के साथ लगभग यही तरीका सारे न्यूज़ चैनल अपनाते हैं.
कुछ दिन पहले जब डेरा सच्चा सौदा में रेप के मामले में आरोप तय होने थे, तब मीडिया ने अंशुल छत्रपति (इस केस की कवरेज करते हुए मारे गए पत्रकार रामचंद्र छत्रपति के बेटे) का जीना हराम कर दिया था. मैंने भी उन्हें फोन किया था. बोले, ‘भाई बड़ी मुश्किल से खाने बैठ पाया हूं, 10 मिनट दीजिए.’ मैंने उस पूरे दिन फिर उन्हें फोन नहीं किया. छत्रपति किसी एक चैनल की वजह से परेशान नहीं थे.
वीडियो पहली बार देखते हुए हमें विशाल और उनके चेहरे पर जमी परेशानी दिखती है. लेकिन रुककर सोचने पर उस पत्रकार पर डाला जा रहा दबाव भी नज़र आता है. मेरा निजी विचार यही है कि वो पांच मिनट की बाइट के लिए 10 मिनट का इंतज़ार इसीलिए नहीं कर सकती क्योंकि उसका चैनल उसे वो मोहलत नहीं देना चाहता. चैनल मोहलत नहीं देना चाहता क्योंकि दर्शक के तौर पर लोग उसे मोहलत नहीं देना चाहते.
एक दर्शक के तौर पर हम सब कुछ ‘तुरंत’ चाहते हैं. एक मुकम्मल खबर हमें नहीं चाहिए. हमें ‘न्यूज़ी कॉन्टेंट’ चाहिए. चाहे वो कितना ही छिछला हो. इसलिए पत्रकार म्यूटेट हो रहा है. पैपराज़ी बन रहा है.
गौर से देखेंगे तो जान जाएंगे, गला रेतकर मार दिए गए एक सात साल के बच्चे के बाप को पांच मिनट की बाइट के लिए परेशान करने वाली एक अकेली पत्रकार नहीं है. वहां एक पूरा सिस्टम है. जिसका हिस्सा आप और मैं, दोनों हैं.
साभार: द लल्लनटॉप