जीडीपी यानि ग्रॉस डोमेस्टिक प्रॉडक्ट. शुद्ध हिंदी में कहें तो सकल घरेलू उत्पाद. हर तीन महीने में ये शब्द अखबारों के पहले पन्ने पर छपता है. न्यूज चैनल के प्राइम टाइम में इस शब्द के ईर्द-गिर्द बहस होने लगती है, जो दो-तीन दिनों तक चलती है. जो सत्ता में होता है, वो सामने आए आंकड़ों के पक्ष में बात करता है. जो विपक्ष में होता है, वो आंकड़ों की खामियां गिनाता है. 31 अगस्त को आए आंकड़ों ने एक बार फिर इसे चर्चा में ला दिया है. इस बार का आंकड़ा 5.7 फीसदी है, जो पिछले तीन साल में सबसे कम है. सत्ता पक्ष इसका बचाव कर रहा है और विपक्ष इसपर सवालिया निशान लगा रहा है.
ये जीडीपी बला क्या है
मान लीजिए कि किसी के खेत में एक पेड़ खड़ा है. वो खड़ा है तो बस छाया देता है और किसी काम का नहीं है. अब अगर वो पेड़ आम का है तो किसान आम को बेचकर पैसे कमाता है. ये पैसा किसान के खाते में जाता है, इसलिए पैसा देश का भी है. अब इस पेड़ को काट दिया जाता है. काटने के बाद पेड़ से जो लकड़ी निकलती है, उसका फर्नीचर बनता है. फर्नीचर बनाने का पैसा बनाने वाले के पास जाता है, यह पैसा भी देश का है. अब इस फर्नीचर को बेचने के लिए कोई दुकान वाला खरीदता है. दुकान वाले से कोई आम आदमी खरीद लेता है. आम आदमी पैसा खर्च करता है और दुकानदार के पास पैसा आ जाता है. खड़े पेड़ के कटने के बाद से कुर्सी-मेज बन जाती है, जिसे कोई खरीद लेता है. इसे खरीदने में पैसे खर्च होते हैं. इस पूरी प्रक्रिया में जो पैसा आता है, वो जीडीपी का हिस्सा होता है.
एक और उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं
मेरा एक परिवार है. पिता जी खेती करते हैं. इसके साथ ही वो मछली पालन भी करते हैं और बागवानी कर फूल और औषधियां उगाते हैं. मैं खुद नौकरी करता हूं. भाई एक प्रोफेशनल ग्राफिक डिजाइनर है. चाचा की एक दुकान है, जिसमें वो दवाइयां बेचते हैं. एक और चाचा का अपना कारखाना है, जिसमें वो बर्तन बनाते हैं. सबकी आमदनी लगभग तय है, जिसमें हर साल कुछ बढोतरी होती रहती है या कुछ कमी होती रहती है. एक तय वक्त में सभी लोगों की जो कुल आमदनी होती है, वहीं मेरे परिवार की जीडीपी है. इसी तरह से पूरे देश की जीडीपी निकाली जाती है, जो पूरे देश की जीडीपी होती है.
कैसे तय की जाती है जीडीपी
जीडीपी को तय करने के लिए आधार वर्ष तय किए जाते हैं. यानि उस आधार वर्ष में देश का जो कुल उत्पादन था, वो 2017 में उसकी तुलना में कितना बढ़ा है या घटा है, उसे ही जीडीपी की दर मानी जाती है. अगर बढ़ोतरी हुई है तो जीडीपी बढ़ी है और अगर तुलनात्मक रूप से उत्पादन घटा है तो जीडीपी में कमी आई है. इसे कॉन्स्ट्रैंट प्राइस कहते हैं, जिसके आधार पर जीडीपी तय की जाती है. इसके अलावा एक और तरीका भी है. इसे करेंट प्राइस कहते हैं. चूंकि हर साल उत्पादन और अन्य चीजों की कीमतें घटती-बढ़ती रहती हैं, इसलिए इस तरीके को भी जीडीपी नापने के काम में लाया जाता है, जिसमें महंगाई दर भी शामिल होती है.
जीडीपी का आंकलन सिर्फ देश की सीमाओं के अंदर ही होता है. यानि गणना उसी आंकड़े पर होगी, जिसका उत्पादन अपने देश में हुआ हो. इसमें सेवाएं भी शामिल हैं.
भारत में कैसे तय की जाती है जीडीपी
भारत में जीडीपी की गणना हर तिमाही होती है. यानि हर तीन महीने में देखा जाता है कि देश का कुल उत्पादन पिछली तिमाही की तुलना में कितना कम या ज्यादा है. भारत में कृषि , उद्योग और सेवा तीन अहम हिस्से हैं, जिनके आधार पर जीडीपी तय की जाती है. इसके लिए देश में जितना भी व्यक्तिगत उपभोग होता है, व्यवसाय में जितना निवेश होता है और सरकार देश के अंदर जितने पैसे खर्च करती है उसे जोड़ दिया जाता है. इसके अलाा और कुल निर्यात (विदेश के लिए जो चीजें बेची गईं है) में से कुल आयात (विदेश से जो चीजें अपने देश के लिए मंगाई गई हैं) को घटा दिया जाता है. जो आंकड़ा सामने आता है, उसे भी ऊपर किए गए खर्च में जोड़ दिया जाता है. यही हमारे देश की जीडीपी है.
किसके जिम्मे है जीडीपी तय करने का काम
जीडीपी को नापने की जिम्मेदारी मिनिस्ट्री ऑफ स्टैटिक्स ऐंड प्रोग्राम इम्प्लीमेंटेशन के तहत आने वाले सेंट्रल स्टेटिक्स ऑफिस की है. ये ऑफिस ही पूरे देश से आंकड़े इकट्ठा करता है और उनकी कैलकुलेशन कर जीडीपी का आंकड़ा जारी करता है.
बदलता रहता है आधार वर्ष
भारत में जीडीपी नापने के लिए आधार वर्ष 2011-12 है. इस आधार वर्ष में बदलाव 2015 में किया गया है. इससे पहले आधार वर्ष 2004-05 था. देश में सबसे पहले 1948-49 के बेस इयर पर पहली बार जीडीपी की गणना की गई थी, जिसे पहली बार 1956 में ‘एस्टीमेट्स ऑफ नेशनल इन्कम’ में छापा गया था. बाद के साल में बेस इयर में बदलाव आते रहे. अगस्त 1967 में बेस इयर पहली बार बदला गया और इे 1960-61 कर दिया गया. जनवरी 1978 में इसे 1970-71 कर दिया गया, फरवरी 1988 में बेस इयर बदलकर 1980-81 कर दिया गया. फरवरी 1999 में बेस इयर में फिर बदलाव किया गया और इसे 1993-94 कर दियाा गया. इसके बाद 2006 में फिर बेस इयर बदला और इसकी गणना 2004-05 के आधार पर की जाने लगी.
गणना में शामिल किए गए कुछ और भी क्षेत्र
2015 तक जीडीपी को नापने के लिए कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्र को जगह दी जाती थी. 2015 में जीडीपी नापने में कुछ बदलाव किए गए. इसके तहत कृषि क्षेत्र में पशुपालन, मछली पालन, बागवानी और अन्य कई सेक्टरों को जोड़ दिया गया, जिससे कृषि क्षेत्र में उत्पादन का आंकड़ा बढ़ गया. ठीक इसी तरह से उत्पादन क्षेत्र में पहले टीवी और स्मार्टफोन से आने वाले पैसे को जगह नहीं दी जाती थी. 2015 में हुए बदलाव में इन सेक्टरों को भी शामिल किया गया है.
जीडीपी जरूरी क्यों है
जीडीपी किसी देश के आर्थिक विकास का सबसे बड़ा पैमाना है. 8 फीसदी या इससे अधिक की जीडीपी का मतलब है कि देश की आर्थिक बढ़ोतरी हो रही है. अगर जीडीपी बढ़ती है तो इसका मतलब है कि अर्थव्यवस्था ज्यादा रोजगार पैदा कर रही है. इसका ये भी मतलब है कि जो लोगों का जीवन स्तर भी आर्थिक तौर पर समृद्ध हो रहा है. हमारे देश की जीडीपी में सेवाओं का हिस्सा सबसे बड़ा है. इससे ये भी पता चलता है कि कौन से क्षेत्र में विकास हो रहा है और कौन का क्षेत्र आर्थिक तौर पर पिछड़ रहा है.
क्यों कम हो गई भारत की जीडीपी
अप्रैल से लेकर जून तक की तिमाही के लिए जीडीपी घटकर 5.7 फ़ीसदी रह गई है. पिछले साल इसी तिमाही में जीडीपी बढ़ने की रफ्तार 7.9 फीसदी थी. पिछली तिमाही में जीडीपी 6.1. फीसदी थी. ये लगातार तीसरी ऐसी तिमाही है, जिसमें जीडीपी कम हो गई है. के अलग-अलग अर्थशास्त्री अलग-अलग वजहों को देश की जीडीपी में गिरावट की वजह मान रहे हैं. मुख्य तौर पर अर्थव्यवस्था में हालिया दो बदलाव आए हैं, जिन्हें इस गिरावट की असली वजह माना जा रहा है. पहला है नोटबंदी और दूसरा है जीएसटी.
जीएसटी का असर
जीएसटी कानून के तहत देश में 1 जुलाई 2017 से पहले निर्मित किसी उत्पाद पर कारोबारियों को टैक्स में कोई रियायत नहीं मिलेगी. इसी नियम के तहत देश में मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर की रफ्तार सुस्त पड़ी और पहली तिमाही के जीडीपी आंकड़ों को नुकसान पहुंचा है. सभी को ये पता था कि 1 जुलाई 2017 से जीएसटी लागू होनी है, इसलिए इंडस्ट्री के लोगों ने जीएसटी लागू होने से पहले ही उत्पादन कम कर दिया. इंडस्ट्री को भी शायद ये डर था कि जीएसटी से पहले बने सामान पर उन्हें कर में छूट नहीं मिलेगी.
नोटबंदी का असर
अर्थव्यवस्था में गिरावट की दूसरी और सबसे अहम वजह नोटबंदी भी रही है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक नोटबंदी के बाद 99 फीसदी नोट बैंकों के पास पहुंच गए हैं. हालांकि नोटबंदी की वजह से मार्केट में नकदी का संकट पैदा हो गया था. इसकी वजह से उपभोक्ता सामानों की बिक्री कम हो गई थी. इसके अलावा उत्पादन पर भी असर पड़ा, जिसकी वजह से जीडीपी में गिरावट दर्ज की गई है.
अभी क्या है अर्थव्यवस्था का हाल
वित्त वर्ष 2017-18 की जून में खत्म हुई पहली तिमाही के दौरान देश की जीडीपी 5.7 फीसदी है. अगर इससे पिछले वाली तिमाही की बात करें तो ये आंकड़ा 6.1 फीसदी था. केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) के आंकड़ों के मुताबिक 2016-17 की इसी तिमाही में ये आंकड़ा 7.9 फीसदी था. अर्थव्यवस्था में फिलहाल सबसे खराब हालत मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की है. इस सेक्टर की ग्रोथ रेट जून तिमाही में 1.2 फीसदी तक आ गिरी है, जो पिछले साल इसी तिमाही के दौरान 10.7 प्रतिशत थी.
अर्थव्यवस्था मापने का कितना वाजिब तरीका
भारत में अभी तक देश की अर्थव्यवस्था मापने का अभी तक का सबसे बेहतर तरीका जीडीपी को ही माना जाता है. जब रघुराम राजन भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर थे, तो उन्होंने एक कार्यक्रम के दौरान उदाहरण दिया था.
उन्होंने कहा था-
मान लीजिए कि एक मां अपने बच्चे की देखभाल के लिए किसी को 500 रुपये देती है. जो उस महिला की देखभाल करती है, उसका भी एक बच्चा है और वो जिस बच्चे की देखभाल करती है उसकी मां को अपना बच्चा देखभाल करने को दे देती है. दोनों महिलाएं अपने-अपने बच्चे की देखभाल के लिए एक दूसरे को 500-500 रुपये देती हैं. दोनों की सेवाओं का कुल मूल्य 1000 रुपये हो गया, जिसे जीडीपी में जोड़ दिया जाएगा, लेकिन इसका हासिल क्या होगा. इससे अर्थव्यवस्था को तो कोई फायदा नहीं होगा, हां जीडीपी के आंकड़े में बढ़ोतरी हो जाएगी.
इसके अलावा और भी अर्थशास्त्री हैं, जो इस पर सवालिया निशान लगाते रहे हैं.
कुछ खामियां भी हैं
1.फिलहाल जिस तरह से जीडीपी नापी जाती है, कुछ अर्थशास्त्री उसमें कमियां भी देखते हैं. उदाहरण के तौर पर हर देश की अर्थव्यवस्था में कुछ ऐसा पैसा होता है, जो आधिकारिक तौर पर घोषित नहीं होता है. आसान शब्दों में हम इसे काला धन कहते हैं. ये काला धन जीडीपी में शामिल नहीं किया जाता है.
2. अभी अगर अपने देश की कोई कंपनी किसी दूसरे देश में निवेश करती है और वहां फायदा कमाती है, तो उसका फायदा जीडीपी में नहीं जोड़ा जाता है. इसके लिए एक अलग टर्म इस्तेमाल किया जाता है, जिसे जीएनपी कहते हैं. जीएनपी ग्रॉस नेशनल प्रॉडक्ट (सकल राष्ट्रीय उत्पाद) होता है.
3. जीडीपी सिर्फ आर्थिक आंकड़ा देखकर जारी की जाती है. इसमें देश की सामाजिक स्थिति या रहन-सहन के स्तर को शामिल नहीं किया गया है.
भूटान है अकेला उदाहरण
हमारा पड़ोसी देश भूटान दुनिया का अकेला देश है, जिसकी जीडीपी हैपिनेस इंडेक्स के आधार पर जारी की जाती है. इसका मतलब ये है कि भूटान की अर्थव्यवस्था इस बात पर निर्भर करती है कि उसके देश में रहने वाले लोग कितने खुशहाल हैं.
साभार: द लल्लनटॉप