डॉ. अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी. शिक्षक और अध्येता. लोक में खास दिलचस्पी, जो आपको यहां दिखेगी. अमरेंद्र हर हफ्ते हमसे रू-ब-रू होते हैं. ‘देहातनामा’ के जरिए. पेश है इसकी तेरहवीं किस्त:
पुत्र-जन्म पर जो गीत गाया जाता है, वो सोहर है. कहीं-कहीं इसे सोहिलो भी बोलते हैं. आनंद की जब बधाई बजती है, तो सखियां अपनी सखी के मां बनने की खुशी में सोहर गा रही होती हैं:
‘बाजै लागी आनंद बधैया, गावैं सखि सोहर।’
छंद, कविता का एक ढर्रा है. सोहर एक छंद भी है. इसे गाने की खास लय-ताल है. बहुत सी स्त्रियां हैं, जो इस लय-ताल को बड़ी मोहकता से गाती हैं. महाकवि तुलसीदास ने अपनी रचना ‘रामलला नहछू’ इसी छंद में लिखी है. ये इसी लय-ताल में गाई भी जाती है.
अपने समाज में दुख को गाने की रीति है. उल्लास के मौकों पर भी दुख की अन्तर्वस्तु वाले गीत गा दिए जाते हैं. ऐसे अनेक सोहर गीत हैं, जिनमें मानव जीवन का करुण पक्ष सामने रखा गया है. मानव के जीवन का ही नहीं, वरन् पूरी दुनिया का. इस दुख में कभी नदी शामिल होती है, कभी चिड़िया, कभी जंगल, कभी पशु-पक्षी. इन सबसे कटकर क्या मानव-बुद्धि का विकास संभव है! इन सबसे जुड़कर ही कोई भी भाव-विशेष सीमाहीन व्यापकता प्राप्त करता है.
दुख और करुणा में थोड़ा अंतर है. मुझे लगता है कि वही दुख करुणा है, जो बूंद भर आंसू में पूरी दुनिया को झलका दे. ये करुणा संवेदना पैदा करती है. अपना व पराया का भेद करने वाली लघुचेतना से अलग उदारचेतना पूरी दुनिया के साथ भावनात्मक और संवेदनात्मक रिश्ता बनाती है. पशु-पक्षियों के दुख को देखता हुआ और उसे व्यापकता देता हुआ मनुष्य, मनुष्यता को भी बेहतर बनाने की कोशिश करता है. यही करुणा की ज़मीन है. इस सोहर में देखिए कि एक हिरनी का कितना मर्मस्पर्शी वर्णन किया गया है (लोकभाषा में लिखी पंक्तियों का मतलब हिन्दी में भी दिया जा रहा है):
छापक पेड़ छिउलिया तौ पतवन गहवर हो,
अरे तेहि तर ठाढ़ि हिरनिया त मन अति अनमनि हो।
(ढाक का (छूल का) एक छोटा सा घने पत्ते वाला पेड़ है. ये खूब लहलहा रहा है. इसी पेड़ के नीचे हिरनी खड़ी है, लेकिन वो मन से बहुत बेचैन है.)
चरतइ चरत हरिनवां तौ हरिनी से पूछइ हो,
हरिनी, की तोर चरहा झुरान कि पानी बिन मुरझिउं हो।
(चरते-चरते हिरन ने हिरनी की इस दशा को देखा. उसने पूछा, ‘हे हिरनी, तुम उदास क्यों हो? क्या चारागाह सूख गया है या तुम्हारा मन पानी के अभाव से व्याकुल है.’)
नाहीं मोर चरहा झुरान न पानी बिन मुरझिउं हो,
हरिना आज राजा जी के छट्ठी तुम्हहिं मारि डरिहइं हो।
(हिरनी ने कहा, ‘हे प्रिय, न तो चारागाह ही सूखा है और न ही मैं पानी बिना मुरझा रही हूं. बात कुछ और है. आज राजाजी के यहां उसके पुत्र की छट्ठी है. वे आज तुम्हें मार डालेंगे.’)
जैसा कि हिरनी ने कहा था, आगे वैसा ही हुआ. हिरन मार डाला गया. उसके मांस का राज-भोज हुआ. राम-जन्म पर राज्योत्सव हुआ. इधर मृत्यु, उधर सत्ता का उत्सव. हिरन के मारे जाने पर हिरनी राजा दशरथ की रानी कौशल्या के पास जाती है. वो रानी से अपना अनुरोध कहती है:
मचियै बैठी कौसिल्ला रानी हिरनी अरज करइ हो,
रानी मसवा तौ सिझहीं रसोइयां खलरिया हमैं देतिउ हो।
पेड़वा से टंगबइ खलरिया तौ मन समझाइब हो,
रानी हेरि फेरि देखबइ खलरिया जनुक हिरना जीतइ हो।
(रानी कौशल्या मचिये पर बैठी हुई हैं. हिरनी विनती कर रही है, ‘हे रानी, हिरन का मांस तो आपकी रसोई में सीझ ही रहा है. आपसे एक विनती है, हिरन की खाल ही हमें दिलवा दीजिए. मैं इसे पेड़ पर टांगूंगी. हेर-फेरकर देखा करूंगी. अपने मन को समझाऊंगी कि हिरन तो जीवित है, जी रहा है.)
और कौशल्या तो रानी हैं. उनका जवाब साफ़ है:
जाहु जाहु हिरनी घर अपने खलरिया नाहीं देबइ हो,
हिरनी खलरी कै खंघड़ी मिढ़इबइ त राम मोर खेल िहइं हो।
(हे हिरनी, तुम अपने घर जाओ. ये भी मुझसे नहीं होगा. मैं हिरन की खाल तुम्हें नहीं दूंगी. इस खाल से खंजड़ी मढ़ी जाएगी. इसे मेरे बेटे राम बजाएंगे. इससे खेलेंगे.)
असहाय हिरनी लौट आती है, लेकिन…
जब-जब बाजइ खलरिया सबद सुनि अनकइ हो,
हरिनी ठाढ़ि ढ़कुलिया के नीचे हरिन क बिसूरइ हो।
(उस खंजड़ी पर मढ़ी खाल जब-जब बजती है, तब-तब हिरनी उस ध्वनि को सुनकर अनकती है. (अनकना जिसमें अनुभव करना और सुधियाना दोनों है) ऐसी दशा में वो उसी ढाक के पेड़ के नीचे चली जाती है. वहीं खड़े-खड़े अपने हिरन को बिसूरती है. कातर दीठ से राह निहारती है.)
इस गीत की जो भाव-सबलता है, उस पर जितने शब्द खर्च किये जाएं, थोड़े साबित होंगे. लेकिन ग्रामगीतों का संग्रह करने वाले लोकसाहित्य के मर्मज्ञ रामनरेश त्रिपाठी के शब्दों को यहां प्रस्तुत करना अनुचित नहीं होगा:
‘हिरणी हिरण की खाल इसलिए मांगती थी कि वो उसे देख-देखकर ह्रदय को ढांढस देगी और हिरण जीता है, इस भ्रम को सत्य समझकर एक कल्पित सुख का अनुभव करेगी. मनुष्यों में कितनी ही स्त्रियां हैं, जो अपने मृत पति या पुत्र की चीजें बड़ी सावधानी से रख छोड़ती हैं और एकांत में उन्हें देख-देखकर एक अद्भुत प्रकार का सुख अनुभव किया करती हैं. अंत में हिरण की खाल की खंजड़ी बनी. खंजड़ी जब-जब बजती थी, तब-तब उसकी ध्वनि से हिरणी के हृदय में प्रेम का एक इतिहास जाग्रत् होता था और वो उसी इतिहास में लीन हो जाती थी.’
ये गीत महाकाव्यात्मक है. इस गीत की करुणा में हम किसी भी तरह की सत्ता के संवेदनहीन आचरण के तहत हो रही किसी भी तरह की मृत्यु के दुख को शामिल पाते हैं. सामंतवाद का चरित्र इस गीत के माध्यम से बखूबी समझा जा सकता है. सामंतवाद या सत्ता अपने सुख के सामने जरा सा भी (खाल बराबर भी) मुरव्वत नहीं करना चाहती. वो अपने लाभ में, अपने अतिचार में और अपने सुख में पूर्णतया संवेदनहीन है.
तयशुदा हत्याओं का दर्द भी इस गीत में शामिल है. जो सही मायनों में बैद्धिक कार्य या सत्ता के अतिचार के प्रतिरोध का कार्य कर रहे हैं, उन्हें ये गीत बहुत आत्मीय लगेगा. सत्ता उन्हें भी नहीं बर्दाश्त करेगी. अपने सुखोत्सव में वो उनके प्राण ले सकती है. लेती ही है. तयशुदा हत्या के रूप में. भले लोकतंत्र हो, लेकिन वो बौद्धिक जो सत्ता के सुख में व्यवधान पैदा करेगा, सत्ताधीशों की अमानवीय सुखेच्छा का विरोध करेगा, मारा जाएगा. सत्ता हिरण-खाल की तरह उस हत्या के सारे चिह्न भी अपने लिए रख लेगी या मिटा देगी, ताकि प्रतिरोध की आवाज़ किसी इतिहास या जिंदा वर्तमान से जुड़कर अपने को ताकतवर न महसूस करे. प्रतिरोध जी न सके.
इस लोकगीत से गुजरते हुए अक्सर मुझे रघुवीर सहाय की कविता ‘रामदास’ का ध्यान हो आता है. रामदास की हत्या तयशुदा हत्या है. सत्ता के गुंडे इसे अंजाम दे देते हैं. रामदास उदास स्थिति में अपनी हत्या के लिए प्रस्तुत है:
‘चौड़ी सड़क गली पतली थी,
दिन का समय घनी बदली थी.
रामदास उस दिन उदास था,
अंत समय आ गया पास था,
उसे बता ये दिया गया: उसकी हत्या होगी.’साभार : द लल्लनटॉप