एक दिन पहले पढ़ा था कि कर्नाटक के एक गांव में पानी के कुएं में ज़हर घोल दिया गया. ताकि उस गांव के दलित लोग उस कुएं से पानी न पी सकें. कुओं पर ‘अगड़ी जाति’ के लोगों का हक है. ये प्रैक्टिस 2017 के हिंदुस्तान में बदस्तूर जारी है और ये कहकर इसे छोड़ दिया जाता है कि गांवों में तो लोग अनपढ़ और पिछड़ेपन के शिकार हैं. वो इस तरह की घटिया सोच का शिकार हैं. मगर जब पुणे में एक साइंटिस्ट की खबर सामने आई तो दिमाग फटने लगता है. यहां तो घोर आधुनिकता और शिक्षा के बावजूद जाति के झूठे अभिमान में जिया जा रहा है.
मामला पुणे का है. यहां के मौसम विभाग में एक सीनियर साइंटिस्ट हैं. मेधा खोले नाम है. वो इस विभाग में डिप्टी डायरेक्टर जनरल के पद पर हैं. माने आला अधिकारी. उन्होंने अपनी 60 साल की महिला कुक पर धोखाधड़ी का केस किया है. मेधा का कहना है कि उनकी कुक ने उनसे अपनी असली जाति छिपाई. उन्हें एक ब्राह्मण रसोइए की जरूरत थी और कुक ने खुद को निर्मला कुलकर्णी बताया था. वो 2016 से उनके घर में हर स्पेशल मौके पर खाना बनाने के लिए आती थीं. मगर हाल ही में गणेश उत्सव के वक्त उन्हें पुजारी ने बताया कि वो कुक तो ब्राह्मण नहीं है. मेधा ने वो किया जिसकी उनसे कोई भी उम्मीद नहीं करेगा. वो निर्मला के घर गईं और पता किया कि वो किस जाति की हैं. पता चला कि निर्मला असल में यादव हैं और विधवा हैं. इसलिए नौकरी पाने के लिए उन्होंने खुद को ब्राह्मण बताया था. मेधा ने धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने और धोखाधड़ी करने का केस दर्ज करवाया है.
पूछने का बहुत मन है कि मेधा खोले जिनके नाम के पीछे साइंटिस्ट लगता है. यानी वै ज्ञान िक. साइंटिफिक सोच वाली. बारिश होगी या नहीं, इसकी भविष्यवाणी भी तो इसी सोच और फैक्ट्स के आधार पर ही बताती होंगी. भोगौलिक और वैज्ञानिक तर्कों पर आधारित ही तो रहता होगा उनका अनुमान. या फिर वो भी बारिश के लिए बलि देने या फिर हवन करने वालों का समर्थन करती होंगी. रैशनैलिटी यानी तर्कशीलता क्या प्रोफेशनल लाइफ या भाषणों तक सीमित रहती है हमारी?
मेधा अब सीनियर साइंटिस्ट हैं तो विदेशों में जाकर लेक्चर भी देती रही होंगी. फिर वहीं जाकर भारत के पिछड़ेपन और जातिवाद पर भी गरियाती होंगी. या फिर किसी सेमिनार में युवाओं को साइंटिफिक अप्रोच रखने की सलाह भी देती होंगी. मगर अपने घर आती हैं तो कुक के लिए अनिवार्य तौर पर ब्राह्मण होने की शर्त रखकर सारी रेशनैलिटी को डस्टबिन में डाल देती हैं. मेधा अकेली नहीं हैं. पढ़ा-लिखा वर्ग, जो किताबों, डिबेट्स और सेमिनाओं तक ही तर्कशील रहता है, की नुमाइंदगी करती हैं ये साइंटिस्ट.
सवाल ये भी है कि हम इस जाति को ईश्वर से भी जोड़कर देखने लगते हैं. एक तरफ कहते हैं कि हम सब एक ही ईश्वर की संतान हैं. सब समान हैं. मगर जब धार्मिक कर्मकांडों की बात आती है तो दुनिया भर के ज्ञानी लोग भी पुजारियों और मौलवियों के आगे दंडवत हो जाते हैं. यही वो लोग हैं जो ब्लड लेने से पहले डोनेटर का धर्म, जाति और गोत्र पूछते हैं. ये वही लोग हैं जो दुनिया को ज्ञान बराबरी का देते हैं मगर अपने घर में मेड की चाय का कप अलग रखते हैं.
क्या जिन पूर्वजों की याद में मेधा, निर्मला से ब्राह्मण समझकर खाना बनवा रहीं थी, वो ये जानने के बाद कि उनके लिए खाना किसी गैर-ब्राह्मण ने बनाया था, ऑफेंड हुए होंगे? अगर ऐसा है तो घोर त्रासदी है. हम मरने के बाद भी जाति के जंजाल से नहीं आज़ाद हो पा रहे हैं. मेधा की मानसिक लाचारी जानकर अब कर्नाटक के उन दलितों के बारे में सोचकर ‘खराब’ नहीं लग रहा.
साभार: द लल्लनटॉप