सांझ के धुंधलके में
धीमी धीमी
टिनटिनाती घंटियों की ध्वनि
किन अनजान चरागाहों से
आ रहीं है ।
भेड़ों के झुंड-सी
अवचेतन की
घाटियों में छिपी
परंपराओं को
संस्कार
अपने अभ्यास की
पैतृक लाठी से
हाँक रहे हैं ।
धरती के जघनों के बीच
फैली
घाटियों के अंग
कुम्हलाने लगे हैं ।
नाभि-से गहरे
पोखर के जल में
अंधियाला डूब रहा है ।
शिखरों पर से
चीलों के पंख खोल
अंतिम सुनहली किरणें
आकाश की खोहों में
सोने चली गई हैं ।
चारों और
नैराश्य, संदेह
अवसाद का कुहासा
गहराने लगा है ।
मन क्या खोज रहा है ?
इन क्षण दृश्यों के
बदलते रूपों में
समग्रता, संगति
कहाँ है ?
वह तो तुम से
संयुक्त रहने में है ।