आ:, यह माणिक सरोवर,
रजत हरित, अमृत जल
अरुण सरोवर ।
नव सूर्योदय हुआ,
अंत: तृष्णाओं के
रेशमी कुहासे
छंट गए,
देह लाज मान
मिट गए ।
आ:, यह उज्जवल लावण्य,
रस शुभ्र जल ।
ज्ञान ध्यान डूब गए,
श्रद्धा विश्वास
उतने स्वच्छ न निकले ।
समाधि ? निष्क्रिय
तन्मयता प्रेम मूढ़ थी ।
यह माणिक मदिर आलोक
नव जागरण निकला ।
देह अंधकार न थी,
अंत: सुख का पात्र बन गई;
इंद्रियाँ क्षणिक न थीं
नया बोध द्वार बन गईं ;
जीवन मृत्यु न था
नयी शोभा, नयी क्षमता बन गया ।
आकाश फालसई,
धरती मणि पद्म को घेर
हरित स्वर्ण हो उठी ।
ह्रदय का अनंत यौवन,
प्राणों की स्वच्छ आग निकला
यह रत्न ज्वाल सरोवर ।