शरद आ गई है
श्वेत कृष्ण बलाकों की
मदिर चितवन लिए,
शरद छा गई ।
स्वच्छ जल
नील नभ
उसी का कक्ष है ।
कांसों की दूध फेन सेज पर
चंदिरा सोई है ।
गौर पद्म सरोवर
उठता गिरता
उसी का वक्ष है ।
यह प्रिया की कल्पना है,
चंद्रमुखी प्रिया की ।
शोभा स्वप्न कक्ष में
देह भार मुक्त
शील उज्वल लौ
चंदिरा की ।
सरोवर जल में
रुपहरी आग है,
राजहंस
स्वप्नों के पंख खोले हैं,
तुम्हारी रूप तरी में
प्राणों के शुभ्र पाल हैं,
नवले ।
ओ युवक युवतियो,
स्वच्छ चाँदनी में नहाओ,
नग्न गात्र, नग्न मन,
आत्म दीप लिए,
मुक्त चाँदनी में आओ ।
नवीन देह बोध पाओ,
रूप रेखाएँ देखो,
रूप सीमाएँ
पहचानो ।
ए तटस्थ प्रेमियो,
रूप विरक्त मत होओ;
रस स्रोत मन में है,
सौन्दर्य आनंद
भीतर हैं,-
देह में न खोजो ।
देह लजाती है,
अपनी सीमा जानती है;
प्रेम विरत होता है
रज गंध में सन कर;
उसका मंदिर ह्रदय है ।
काले मेघों के महल
ढह गए,
चपला की चमक
कामना की दमक
मिट गई;
यह सामाजिकता का
प्रासाद है,
शरद शुभ्र
भाव गौर,
मानवता का स्फटिक प्रांगण ।
ओ युवक युवतियो,
शील सौम्य
शरद शुभ्र
चरण धर आओ ।