शंखध्वनि
गूँजती रहती,
सुनाई नहीं पड़ती ।
त्याग का शुभ्र प्रसार,
ध्यान की मौन गहराई,
समर्पण की
आत्म विस्मृत तन्मयता,
आवेग की
अवचनीय व्यथा
और,
प्रेम की गूढ़ तृप्ति
शंखध्वनि ,…
सुनाई नहीं पड़ती,
सुनाई नहीं पड़ती ।
श्रवण गोचर ?
इंद्रिय गोचर ?
ऐसी स्थूल
कैसे हो सकती है
शंख ध्वनि ?
गूँजती रहती,
वह गूँजती रहती ।
हे वन पर्वत, आकाश सागर,
तुम निविड़ हो, उच्च हो,
व्यापक हो, निस्तल हो ।
कहाँ है अनंत और शाश्वत ?
शंखध्वनि
अणु अणु में व्याप्त
इन सब से परे,
परे, परे,
सुनाई पड़ती,
निश्चय
सुनाई पड़ती ।