नया चाँद निकल आया है
अतल गहराइयों से,
समुद्र से भी अतल गहराइयों से ।
स्वप्न तरी पर बैठा
स्फटिक ज्वाल,
लहरों की रुपहली लपटों से घिरा ।
रात की गहराइयाँ
सूरज को निगल जाती हैं;
तभी,
चाँद बन आई
तुम्हारी स्मृति ।
सभी रत्न नहीं भाते,
विष वारुणी
स्फटिक, प्रवाल
सर्प, शंख,
अमृत स्रोतस्विनी के तट पर
बिखरी पड़ी सृष्टि ।
चाँद भी
कलंक न सही,
उपचेतन गहराइयों का ही
प्रकाश है ।
प्यास नहीं बुझा पाता ।
अचेतन को
नहीं पिघला पाता ।
मन के मौन श्रृंगों पर
सुनहले क्षितिज
नव सूर्योदय की प्रतीक्षा में हैं ।
शुभ्र
अवाक्
आत्मोदय की ।