ओ रंभाती नदियो,
बेसुध
कहाँ भागी जाती हो?
वंशी-रव
तुम्हारे ही भीतर है।
ओ, फेन-गुच्छ
लहरों की पूँछ उठाए
दौड़ती नदियो,
इस पार उस पार भी देखो,
जहाँ फूलों के कूल
सुनहरे धान से खेत हैं।
कल-कल छल-छल
अपनी ही विरह व्यथा
प्रीति कथा कहते
मत चली जाओ।
सागर ही तुम्हारा सत्य नहीं
वह तो गतिमय स्रोत की तरह
गनि हीन स्थिति भर है ।
तुम्हारा सत्य तुम्हारे भीतर है ।
राशि का ही अनंत
अनंत नहीं,-
गुण का अनंत
बूंद-बूंद में है ।
ओ दूध धार टपकाती
शुभ प्रेरणा धेनुओ,
तुम जिस वत्स के लिए
व्याकुल हो
वह मैं ही हूं ।
मुझे अपना धारोष्ण प्रकाश
अनामय अमृत पिलाओ ।
अपनी शक्ति
अपना जय दो ।
मुझे उस पार खड़ी
मानवता के लिए
सत्य का वोहित्य
खेना है ।
ओ तट सीमा में बहने वाली
सीमा हीन स्रोतस्विनियो,
मैं जल से ही
स्थल पर आया हूं ।