तुम रति की भौं हो
कि काम का धनु खंड ?
ओ चाँद,
यह रेशमी आशा बंध
तुम्हीं ने बुना ।
जिसमें
किरणों के असंख्य रंग
उभर आए हैं ।
ओ प्यार के टूटे दर्पण,
तुम्हारा खंड खंड पूर्ण है ।
जिसमें अपूर्ण भी
संपूर्ण दिखाई देता है ।
यह कौन सी आग है
माखन सी कोमल,
स्तन सी मांसल ।
इसमें जलना ही
सोना बनना है ।
विरह का गरल
अमृत बन
कब का शिव हो गया,-
तुम्हारा शशि सा पद नख
भाल पर धारण कर ।
लाल फूलों की लौ-
मेरी लालसा
जीभ चटकारती है ।
निर्जन में लेटी चाँदनी
तुम्हारी ओर ताकती है ।
तुम्हारी सात्विक सुधा
प्राणों की समस्त ज्वाला
पी लेती है ।
ओ अमृत घट,
ज्ञान के नि:सीम नील में
सुनहले आशा के बंध के भीतर
तुम्हीं हो,
प्यास की अनंत लहरियों में
रुपहली नाव खेने वाले
आत्म मग्न
तुम्हीं हो ।
मैं नहीं ।