ओ ममाखियो,
यह सोने का मधु
कहाँ से लाईं ?
वे किस पार के वन थे
सद्य: खिले फूल ?
जिनकी पंखुड़ियां
अंजलियों की तरह
अनंत दान के लिए
खुली रहती हैं ।
कितने स्रष्टा
स्वप्न द्रष्टा
चितवन तूली से
उनके रूप रंग अंकित कर लाए ।
फूलों के हार
पुष्पों के स्तवक संजोकर
उन्होंने
कुम्हलाई हाटें लगाईं ।
रूप के प्यासे नयन
मधु नहीं चीन्ह सके ।
ओ सोने की माखी,
तुम गर्म ही में पैठ गईं,
स्वर्ग में प्रवेश कर
हिमालय-से अचेत
शुभ्र मौन को
गुंजित कर गईं ।
उन माणिक पुष्पराग के
जलते कटोरों में
कैसा पावक रहा,
हीरक रश्मियों भरा ?
जिसे दुह कर
तुम घट भर लाईं ।
तुम घट भर लाईं ।
कौन अरुप गंध तुम्हें
कल का संदेश दे गई ?
ओ गीत सखी
ये बोलते पंख मुझे भी दो,
जो गाते रहते हैं,-
और,
वह मधु की गहरी परख,-
मैं भी
मधुपायी उड़ान भरूँगा ।
मानवता की रचना
तुम्हारे छत्ते-सी हो ।
जिसमें स्वर्ग फूलों का मधु,
युवकों के स्वप्न,
मानव ह्रदय की
करुणा ममता,
मिट्टी की सौंधी गंध भरा
प्रेम का अमृत,
प्राणों का रस हो ।