अमृत सरोवर में
रति सागर में डूब
मैं पूर्ण हो गया ।
किसी वृहत् शतदल का
पराग है यह स्वर्ण धूलि,
इसके कण कण में
मधु है ।
यह नील
अंत: स्पर्शी एकाग्र दृष्टि है,
जिसमें अनंत सृजन स्वप्न
मचल रहे हैं ।
तुम्हारी कामदेह शोभा
आदर्श है,
जिसमें शाश्वत बिम्बित है ।
रोम हर्ष
प्रकाश अंकुर हैं,
जिनमें नवीन प्रभात उदित है ।
वस्तु कभी वस्तु न थी,
तुम्हीं थी ।
भले दृष्टि न हो ।
तुम,
जिसे प्रेम आनंद
प्रकाश, शांति
वाणी नहीं दे पा रहे,
अनंद शाश्वत
छू नहीं पा रहे;
तुम्हीं हो,
भले दृष्टि न हो ।