अनाज कोई काम नहीं,
सोने के तार सा खिंचा
प्यारा दिन है !
कल गुलाबों में
काट छाँट की थी,
तब से आँखों के सामने
नयी नयी कोंपलें
फूट रही हैं !
ललछौहीं कोंपलें
स्वप्न भरी
रतनार चितवन सी,
शुभ्र पीत चिनगियों सी,
लपटों के पग धर
नयी पीढी बढ़ रही है !
ज्यों ही आँखें मूँदता हूँ
कोंपलें केवल कोंपलें,..
रेशमी मूँगी कोंपलें,
रुपहले सुनहले इंगितों सी
बरस पड़ती हैं !
जो सृजन उन्मेष,
मन ने बहुत काट छांट की,
पुराने ठूँठ उखाड़े,
रही जड़ें खोदीं
भद्दी डालियाँ
काटीं तरासीं,
इधर उधर
कला शिल्प के हाथों से
भाव बोध के स्पर्शों से
सहस्रों नये वसंत संवारे !
अभी असंख्य शरदों को
अपने अंग
पावक में नहला कर
रूप ग्रहण करना है !
आज मुझे
नये स्वप्न
नये जागरण
नये चैतन्य की कोंपलें
दिखाई देनी हैं !
सर्वत्र कोंपलें ही कोंपलें
आँखों के सामने
भाव भरा मुख
स्वप्न भरी चितवन
खोल रही हैं !