देह मूल्यों के नहीं
मेरे मनुष्य ।
रस वृन्त पर खिले,
मानस कमल हैं वे,
पंक मूल,
आत्मा के विकास ।
मुक्त-दृष्टि भावों के दल
आनंद संतुलित ।
कलुष नहीं छूता उन्हें,
रंग गंध वे
मधु मरंद,
गीत पंख
मनुष्य ।
छंद, शब्द बँधे नहीं,
भाव, शिल्प सधे नहीं,
स्वप्न, सोए जगे नहीं ।
सूरज चाँद, सांझ प्रभात?
अधूरे उपमान ।
शोभा ?
बाहरी परिधान ।
रूप से परे
अंत: स्मित,
गहरे
अंत: स्थित,
मूल्यों के मूल्य हैं
मेरे मनुष्य ।