नीली नीहारिकाएँ
शिखरों की हैं,
हरीतिमाएँ,
घाटियों की ।
जिनके आर पार
रश्मि छाया सेतु बाँध
तुम आती जाती हो ।
अंत: सौरभ से खिंच
भौंरों की भीड़
तुम्हें घेरे
गूँजती रहती है ।
और
ये सदियों के खंडहर हैं ।
जहाँ देह मन प्राण
बासी अंधकार की सडाँध में
दिवांधों-से
औंधे मुंह लटके हैं ।
झिल्लियों की सेना
अंतर पुकार को रौंद
चीत्कार भरती है ।
एक दिन में
मीनारें मेहराबें
कैसे उग आएँगी ?
कि रश्मि रेखाओं से
दीपित की जा सकें ।
हैं ऐसे विद्युद्दीप
मन का अंधकार
मिटा सकें ?
ओ विज्ञान,
देह भले ही
वायुयान में उडे,
मन अभी
ठेले, बैलगाड़ी पर ही
धक्के खाता है ।
हाय री, रूढ़िप्रिय
जड़ते,
तेरी पशुओं की सी
साशंक, त्रस्त चितवन देख
दया आती है ।