किरणों की
सुनहली आभा में
लिपटा नील
तुम्हारा उत्तरांग
और
तरंगित सागर
मुक्ताफेन जड़ी
हरी रेशमी साड़ी पहने
तुम्हारी
कटि तक डूबी
आधी देह है ।
किसे ज्ञात था,
पलक मारते ही
ओस के धुएँ के
बादल-सा
यह संसार
आँखों से ओझल हो जाएगा ।
अंतर में तुम्हीं
शेष रह जाओगी ।
ओ विराट, चैतन्य
यह मैं क्या देखता हूँ
कि घर बाग पेड़
और मनुष्य
किसी अदृश्य पट में
चित्रित भर हैं ।
ये वास्तविक सत्य नहीं,
मोम के पुतले भर हैं ।
रथवान
अश्व को चाबुक मारता है,
वह तुम्हारी ही
पीठ पर पड़ रहा है ।
और तुम
खिलखिलाकर
भीतर
हँस रहे हो ।
ओ अद्वितीय,
अतुलनीय,
मैं आश्चर्य में डूबा
अवाक्
तुम्हीं में डूबा हूँ ।